विश्वजीत के साथ कुछ पल
लोकमत समाचार मेें आज
बीते हफ्ते एक आयोजन के सिलसिले में मेरी मुलाक़ात जाने-माने अभिनेता विश्वजीत से हुई और उन्हें क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। विश्वजीत के साथ जब आयोजन की बात तय हुई तब से ही मुझे लाल स्वेटर वाली उनकी छबि याद आ रही थी—या फिर लाल कोट और खुली हुई कमांडर जीप—और उनका गाना—‘पुकारता चला हूं मैं’। या उनके बाक़ी रूमानी गाने—खासतौर पर ‘ये नयन डरे डरे’।
विश्वजीत रूमानी नायकों की पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। बचपन से फिल्मी पर्दे पर उन्हें नायिकाओं के इर्द-गिर्द गाने गाते देखना एकदम अलग बात थी और बयासी बरस की उम्र में उन्हें एयरपोर्ट पर देखना एकदम अलग बात। विश्वजीत की कहानी सुनाने से पहले मैं जिंदगी की कुछ तल्ख़ हक़ीक़तों से आपको वाकिफ करवाता चलूं। मुंबई का एकदम व्यस्त एयरपोर्ट। शनिवार का दिन। सुबह का वक्त। सफेद हाई-नेक में विश्वजीत एयरपोर्ट पर बैठे हैं। चेहरे पर उम्र की इबारत साफ है। कोई उन्हें पहचान ही नहीं रहा है। सच तो ये है कि मुझे पहचानने में भी वक्त लगा। रेडियो और उससे इतर कामों के सिलसिले में नियमित रूप से फिल्म-कलाकारों से मिलना जुलना होता है। उनसे भी जिनका काम इस वक्त शबाब पर है और उनसे भी जो बीते दौर के सितारे बन चुके हैं। यक़ीन मानिए—रोज़ाना खुद को ये याद दिलाते रहिए कि वक्त कपूर की तरह उड़ जाता है। ग़ायब। मुट्ठी खोलें तो वक्त की झुर्रियां नज़र आती हैं। इसलिए बीतते वक्त को बहुत गरिमा के साथ स्वीकार करने में ही भलाई है।
फिल्मी सितारे अमूमन ऐसा नहीं करते। भीड़ से घिरी
उनकी जिंदगी एक सपने की तरह होती है। सपने में भीड़ मौजूद रहती है—हक़ीक़त में
भीड़ उन्हें छोड़कर किसी और को घेर लेती है। और इसे स्वीकारना मुश्किल होता है।
चलिए विश्वजीत की कहानी शुरू करते हैं। बयासी बरस की उम्र में वो एकदम फिट हैं।
सपाट पेट। छरहरा शरीर। क्या खाना है, क्या नहीं। एकदम
तय है सब। तनकर चलते हैं। अदाएं वही हैं पर्दे वाली। कैप, कंधे
पर जैकेट और एकदम अदा वाली चाल। और ढेर सारी पुरानी यादें। कैसे किसी फिल्म की
शूटिंग में वो स्टोन क्रैशर में फंसते बचे। कैसे आग में घिरे। कैसे नॉन ग्लैमरस
रोल भी स्वीकार किए।
पिताजी की याद। जिन्होंने एक दिन कह दिया था कि एक्टिंग और घर में से किसी एक चीज़ का चुनाव कर लो। विश्वजीत उस दिन घर छोड़कर निकल गये थे। ये कोलकाता था। पचास के दशक के अंत वाला कोलकाता। दोस्तों ने एक छोटी कोठरी दिलवा दी। थियेटर में काम जारी रहा। ‘साहेब बीवी और गुलाम’ प्ले चल रहा था। भूतनाथ का संवाद बोलते हुए मंच से देखा तो पहली पंक्ति में गुरूदत्त बैठे हैं। बेमिसाल गुरूदत्त। उफ। ये क्या। बहरहाल—प्ले पूरा हुआ। गुरूदत्त मिले और उन्होंने कहा कि मैं इस नाटक पर फिल्म बनाना चाहता हूं। तुम्हें मुंबई आना होगा। स्क्रीन-टेस्ट हुआ। सब तय हो गया। और सामने पाँच साल का कॉन्ट्रैक्ट रख दिया गया। विश्वजीत चैटर्जी ने इसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि दोस्तों ने समझाया कि गुरूदत्त जैसे सनकी आदमी के साथ पाँच साल बंधकर नहीं रह पायेगा तू। वापस कोलकाता। बांग्ला फिल्में। थियेटर। छोटे मोटे रोल। यानी बस काम जारी रहा।
एक दिन हेमंत कुमार आ गये। बोले, विश्वजीत तुम्हें थियेटर छोड़ना होगा, तुम मेरी फिल्म कर रहे हो। हेमंत कुमार नामी संगीतकार थे। और फिल्में बनाना उनका शग़ल था। हेमंत-बेला प्रोडक्शन के तहत कुछ बांग्ला फिल्में बना डाली थीं। अब गीतांजली फिल्म्स के बैनर तले हिंदी फिल्मों का कारवां चलाना था। कहानी भी चुनी तो ऑर्थर कानन डायल की ‘द हाउंड ऑफ बास्करविल’। ‘बीस साल बाद’ की वजह से कोलकाता छूट गया। और फौजी डॉक्टर पिता के कारण अलग अलग शहरों में पले बिस्वजीत को अच्छी हिंदी बोलने में कभी दिक्कत भी नहीं आई। विश्वजीत हिंदी फिल्मों में जम गये। ‘बीस साल बाद’ आज भी बेहतरीन सस्पेन्स फिल्मों में गिनी जाती है। इसका असर ये हुआ कि इसके बाद इसी तरह की फिल्में मिलने लगीं। ‘कोहरा’, ‘बिन बादल बरसात’, ‘बीस साल बाद’ सब की सब सस्पेन्स फिल्में। विश्वजीत सस्पेन्स सिनेमा के नायक कहे जाने लगे।
इस इमेज को तोड़ने के लिए उन्होंने अपना पैंतरा बदला। अब वो बन गये चॉकलेटी हीरो। 1965 में आई ‘मेरे सनम’ ने उन्हें पूरी तरह रूमानी हीरो बना दिया और उसके बाद अपने पूरे करियर वो हीरोइनों के गिर्द गाने ही गाते रहे। और गाने भी ऐसे वैसे नहीं। अमूमन ओ पी नैयर, हेमंत कुमार और शंकर जयकिशन वग़ैरह के संगीत वाले बेमिसाल गाने। विश्वजीत उस दौर में आए जब सुनहरे संगीत का दौर शबाब पर था। फिल्में चलें ना चलें, गाने चलते थे। इतने चलते थे कि वो आज तक चलते ही जा रहे हैं। और हमारे और आपके पसंदीदा गाने हैं।
विश्वजीत, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर वगैरह उस पीढ़ी के नायक हैं—जब रूपहले पर्दे पर रूमानियत का कोहरा था। ये वो फिल्में हैं जो एक सपनीली दुनिया रचती हैं। वो फिल्में जो हक़ीक़त से आपको अलग करके एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं- जहां सिर्फ चाशनीदार मुहब्बत है। पर मैंने इस यात्रा में देखा कि लोग विश्वजीत को दिलो-जान से चाहते हैं। दरअसल वो विश्वजीत को नहीं नॉस्टेलजिया को प्यार करते हैं।
पिताजी की याद। जिन्होंने एक दिन कह दिया था कि एक्टिंग और घर में से किसी एक चीज़ का चुनाव कर लो। विश्वजीत उस दिन घर छोड़कर निकल गये थे। ये कोलकाता था। पचास के दशक के अंत वाला कोलकाता। दोस्तों ने एक छोटी कोठरी दिलवा दी। थियेटर में काम जारी रहा। ‘साहेब बीवी और गुलाम’ प्ले चल रहा था। भूतनाथ का संवाद बोलते हुए मंच से देखा तो पहली पंक्ति में गुरूदत्त बैठे हैं। बेमिसाल गुरूदत्त। उफ। ये क्या। बहरहाल—प्ले पूरा हुआ। गुरूदत्त मिले और उन्होंने कहा कि मैं इस नाटक पर फिल्म बनाना चाहता हूं। तुम्हें मुंबई आना होगा। स्क्रीन-टेस्ट हुआ। सब तय हो गया। और सामने पाँच साल का कॉन्ट्रैक्ट रख दिया गया। विश्वजीत चैटर्जी ने इसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि दोस्तों ने समझाया कि गुरूदत्त जैसे सनकी आदमी के साथ पाँच साल बंधकर नहीं रह पायेगा तू। वापस कोलकाता। बांग्ला फिल्में। थियेटर। छोटे मोटे रोल। यानी बस काम जारी रहा।
एक दिन हेमंत कुमार आ गये। बोले, विश्वजीत तुम्हें थियेटर छोड़ना होगा, तुम मेरी फिल्म कर रहे हो। हेमंत कुमार नामी संगीतकार थे। और फिल्में बनाना उनका शग़ल था। हेमंत-बेला प्रोडक्शन के तहत कुछ बांग्ला फिल्में बना डाली थीं। अब गीतांजली फिल्म्स के बैनर तले हिंदी फिल्मों का कारवां चलाना था। कहानी भी चुनी तो ऑर्थर कानन डायल की ‘द हाउंड ऑफ बास्करविल’। ‘बीस साल बाद’ की वजह से कोलकाता छूट गया। और फौजी डॉक्टर पिता के कारण अलग अलग शहरों में पले बिस्वजीत को अच्छी हिंदी बोलने में कभी दिक्कत भी नहीं आई। विश्वजीत हिंदी फिल्मों में जम गये। ‘बीस साल बाद’ आज भी बेहतरीन सस्पेन्स फिल्मों में गिनी जाती है। इसका असर ये हुआ कि इसके बाद इसी तरह की फिल्में मिलने लगीं। ‘कोहरा’, ‘बिन बादल बरसात’, ‘बीस साल बाद’ सब की सब सस्पेन्स फिल्में। विश्वजीत सस्पेन्स सिनेमा के नायक कहे जाने लगे।
इस इमेज को तोड़ने के लिए उन्होंने अपना पैंतरा बदला। अब वो बन गये चॉकलेटी हीरो। 1965 में आई ‘मेरे सनम’ ने उन्हें पूरी तरह रूमानी हीरो बना दिया और उसके बाद अपने पूरे करियर वो हीरोइनों के गिर्द गाने ही गाते रहे। और गाने भी ऐसे वैसे नहीं। अमूमन ओ पी नैयर, हेमंत कुमार और शंकर जयकिशन वग़ैरह के संगीत वाले बेमिसाल गाने। विश्वजीत उस दौर में आए जब सुनहरे संगीत का दौर शबाब पर था। फिल्में चलें ना चलें, गाने चलते थे। इतने चलते थे कि वो आज तक चलते ही जा रहे हैं। और हमारे और आपके पसंदीदा गाने हैं।
विश्वजीत, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर वगैरह उस पीढ़ी के नायक हैं—जब रूपहले पर्दे पर रूमानियत का कोहरा था। ये वो फिल्में हैं जो एक सपनीली दुनिया रचती हैं। वो फिल्में जो हक़ीक़त से आपको अलग करके एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं- जहां सिर्फ चाशनीदार मुहब्बत है। पर मैंने इस यात्रा में देखा कि लोग विश्वजीत को दिलो-जान से चाहते हैं। दरअसल वो विश्वजीत को नहीं नॉस्टेलजिया को प्यार करते हैं।
बहुत बढ़िया जानकारी यूनस जी🙏👌👌
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