Tuesday, October 30, 2018

‘घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं’।


प्रिय मित्रो
आप तो जानते ही हैं कि जब मुंबई में मामी फिल्‍म समारोह होता है तो हम वहां होते हैं। पीछे
मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि बचपन की फास्‍ट ट्रेन तमिलनाड एक्‍सप्रेस की तरह बीस साल झनझनाते हुए गुज़र गए। ये बीसवां फेस्टिवल है। सवाल ये है कि फेस्टिवल हमें क्‍या देते हैं। क्‍यूं इनके लिए दीवानगी रखी जाए। बीते हफ्ते मैंने इसका थोड़ा जिक्र किया था- शायद आपका ध्‍यान गया होगा। हां तो साहेबान रूटीन सबसे बड़ी क़ैद होती है—इससे जो निकल लिया—वो निकल लिया। सही के रिया हूं। झांक के देख लो गिरेबान में।

बहरहाल..इस रविवार फिल्‍म फेस्टिवल की एक बहुत ही मोहक फिल्‍म की बात। दिल्‍ली की रंगकर्मी हैं अनामिका हक्‍सर। जिन्‍होंने उनसठ साल की उम्र में जिंदगी की पहली फिल्‍म बनायी है। और अपना सब कुछ दांव पर लगाकर बनायी है। उन्‍होंने ये भी बताया कि इसमें उनके ही नहीं, दोस्‍तों के पैसे भी लग गये। आज इसी फिल्‍म की चर्चा होगी। फिल्‍म का नाम है—घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं। ऐसे कमाल के नाम वाली फिल्‍म भी कमाल की है। पहले ज़रा इसके नाम के बारे में अनामिका के एक इंटरव्‍यू से अंश—फिल्म के इस नाम के पीछे का किस्सा क्या है? डायरेक्टर अनामिका का कहना है कि उनकी एक आंटी हुआ करती थीं जो पुरानी दिल्ली में संगीत सीखने जाती थीं. वो बहुत कहानियां सुनाती थीं. जब अनामिका 15-16 बरस की थीं तब उन्होंने ये किस्सा उनसे सुना था. एक बार उनकी आंटी दिल्ली में कहीं से गुज़र रही थीं कि उन्होंने सुना किसी ने एक घोड़ेवाले से पूछा – “कहां जा रिया है तू?” तो घोड़ेवाला बोला – “अरे.. घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं.ज़ाहिर है सच में वो घोड़े को जलेबी खिलाने नहीं ले जा रहा था, बल्कि उस सवाल पूछने वाले पर तंज कस रहा था कि कॉमन सेंस है वो मेहनत-मज़दूरी वाला आदमी है घोड़े के साथ काम पर ही जा रहा होगा. घोड़े को जलेबी खिलाने वाले तंज में एक विडंबना भी छुपी है कि न तो उस जैसे आर्थिक-सामाजिक वर्ग के लोग अपने रोज़ के संघर्षों से मुक्त हो सकते हैं और न ही उन जैसे गरीब लोगों के घोड़े कभी जलेबी खा सकते हैं

घोड़े को जलेबी...दिल्‍ली को दिखाती है। दिल्‍ली 6 को। यानी पुरानी दिल्‍ली को। पर मुंबई के फिल्‍मकारों की तरह नहीं। यहां मेहनतकश मजदूर हैं। बोझ उठाने वाले, ठेला खींचने वाले हम्‍माल हैं, जेबकतरे हैं, बाल मजदूर हैं, सफाई-कर्मी हैं, कचरा बीनने वाले हैं, सेठ हैं, पुलिस है, हैरिटेज वॉक करवाने वाले गाइड हैं, बिकने को तैयार पुरानी हवेलियां हैं, छतें हैं, टेढी-मेढी...गंदगी से पटी गलियां हैं, भीड़ है, निराशा है, तकलीफ है, सपने हैं, शोषण है, लाचारी है। तरह तरह का परिदृश्‍य है।
ये दिल्‍ली की गलियां हैं—जिनको देखने कोई नहीं आता। जो आते हैं वो दिल्‍ली के इतिहास को देखने आते हैं। दिल्‍ली के पकवानों का लुत्‍फ उठाने आते हैं। अनामिका हक्‍सर हमारी आंखों पर पड़ा पर्दा हटाती हैं और हमें एक बिलकुल अलग भीषण जीवन की बहुत ही असुविधाजनक और तकलीफदेह तस्‍वीर दिखाकर हैरान कर देती हैं। झटका देती हैं। घुटन का अहसास होने लगता है।

फिल्म फीचर, डॉक्यूमेन्ट्री, एनीमेशन और जादुई यथार्थ का एक अजब-सा मिश्रण है। ये फिल्म बहुत दिनों तक साथ चलने वाली है। पुरानी दिल्ली के मेहनतकश लोगों की दुनिया, उनके खौफनाक सपने, उनके जीवन के कटु यथार्थ... एक साथ फिल्म एक पूरी दुनिया को आपके सामने उजागर करती है जिसे आपने हमेशा दूर से और बहुत दूरी बनाकर देखा है। यह फिल्म अपनी ध्वनियों, दृश्यों, नैरेटिव सबके ज़रिए मानो आपकी आंखों के आगे से एक पर्दा हटा देती है ताकि यथार्थ आपके सामने उजागर हो जाए। बधाई अनामिका हक्सर। खासकर इस साहस के लिए। फिर ये बताने के लिए के सिनेमा मुंबई के सपनों के सौदागरों की बपौती नहीं है। किसी भी उम्र में इस रूपहली दुनिया में अपनी तरह से क़दम रखना मुमकिन है। उन्‍होंने 59वें साल में अपनी पहली फिल्‍म बनायी है और बनाकर दिखा दिया है कि अगर पक्‍का इरादा हो तो कुछ भी संभव किया जा सकता है।


अनामिका हक्‍सर ने बताया कि उन्‍होंने बहुत लंबे समय तक उन्‍होंने और उनकी टीम ने इन तमाम लोगों से बात की। उनके सपनों के बारे में पूछा। तकरीबन इन सभी को गहरे गर्त में गिरने के सपने आते हैं। किसी को ये सपना आता है कि सब कुछ डूबा जा रहा है। तरह तरह के डरावने सपने हैं ये। भयानक। खौफनाक। और अनामिका ने एनीमेशन और ग्राफिक्‍स के ज़रिए फिल्‍म में इन सपनों को भी पिरोया है और जीवन की कठिनाईयों के बीच जूझ रहे इन लोगों के जज्‍बात को भी। यहां एक दृश्‍य की चर्चा कर लूं। एक दृश्‍य है जिसमें सड़क पर रातोंरात अचानक मर गये मजदूरों की लाश उठाने वाला एक साइकिल रिक्‍शा आता है। वो तीन लाशों को रिक्‍शे पर रखता है और चला जाता है। उसके लिए ये रोज़ का काम है। वहीं बरसाती ओढ़े एक मजदूर झट से पॉलीथीन हटाता है और जोर से कहता है—मैं मरा नहीं मैं जिंदा हूं। उफ। दम घुटने लगता है इन दृश्‍यों को देखते हुए।

अनामिका ने फिल्‍म का एक बिलकुल नया फॉर्मेट गढ़ा है। उन्‍हें बधाई। कभी कहीं ये फिल्‍म देखने मिले तो मौक़ा जाने मत दीजिएगा।
 



3 टिप्‍पणियां :

उदय सिंह टुंडेले said...

जी, जरुर देखेंगे ... आखिर ये शीर्षक भी तो 'गधे गुलाबजामुन खा रहे हैं' की तरह रोचक है.

कविता रावत said...

निश्चित ही देखने लायक होगी फिल्म, नई दिल्ली तो ठीक है लेकिन दिल्ली ६ का हाल जानते हुए भी कोई नहीं जानना चाहेगा आखिर अच्छा-अच्छा देखने की आदत जो होती है
बहुत अच्छी प्रस्तुति

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राही सरनोबत को जन्मदिन की शुभकामनायें में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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