Sunday, April 4, 2010

बचपन की एक खोई कविता का दोबारा मिलना और इससे उठे कुछ सवाल

बचपन की किसी कविता का खो जाना कितना मानीख़ेज़ हो सकता है ये तब समझ आया था।

आज ठीक से याद तो नहीं आ रहा है...पर शायद 'नागपंचमी' आई थी पिछले साल यानी साल 2009 की। और ज़ेहन में कौंध गई थी मध्‍यप्रदेश के स्‍कूलों में 'बालभारती' में पढ़ाई जाने वाली कविता 'नागपंचमी'। दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो ज्यादा पंक्तियां याद नहीं आईं। अफ़सोस रह गया कि बचपन में रटी गई... बल्कि बड़े शौक़ से याद की गई कविता एकदम से भूल गई। मन विकल हो गया था इसलिए मध्‍यप्रदेश से ताल्‍लुक रख चुके या अभी भी वहां मौजूद मित्रों को ई-मेल भेजा। शायद किसी को याद हो तो बचपन की खोई कविता याद आ जाए।

कईयों के तो जवाब भी नहीं आए। ढूंढी कि नहीं। मिलेगी कि नहीं। पर 'एकोहम' वाले विष्‍णु बैरागी जी के कई बार उत्‍तर मिले। उन्‍होंने सूचना दी कि वे डटे हुए हैं, कहीं से तो मिल ही
जाएगी। पर आखिरकार उनका एक हारा-थका जवाब भी आया। जिसमें सूचित किया गया था कि कविता कहीं नहीं मिल रही। 

फिर पांच अक्‍टूबर 2009 को उन्‍होंने अपने ब्‍लॉग 'एकोहम' पर एक बड़ी ही मार्मिक पोस्‍ट
लिखी। जिसकी शुरूआती पंक्तियां यहां दी जा रही हैं।  

यह महज एक कविता के न मिलने का मामला नहीं है। यह उस ‘कुछ’ के न होने की खबर से उपजी उदासी है जिसके लिए पक्का भरोसा था कि ‘वह’ मेरे पुराने बक्से में पड़ी किसी पोटली में बँधी होगी। भरोसा था कि जब जरुरत होगी तो बक्से का ढक्कन उठा कर उसे ऐसे बाहर निकाल लूँगा जैसे आँखें मुँदी होने पर भी कौर मुँह में रख लेता हूँ। लेकिन जरुरत के मौके पर, ‘वह’ नहीं मिली तो भरोसा ऐसे टूटा जैसे लम्बी-ऊँची घास के, सीटियाँ बजाते सुनसान जंगल के बीच, रास्ते से भटका कोई पथिक, दूर से आ रही बंसी की धुन की पगडण्डी पर मंजिल की ओर बढ़ रहा हो और अचानक ही बंसी की आवाज बन्द हो जाए।

विष्‍णु जी की इस पोस्‍ट को ज़रूर पढियेगा। ये पोस्‍ट जिंदगी से छूटती जा रही चीज़ों के प्रति हमारी निस्‍संगता की ओर इशारा करती है।

बहरहाल...मुझे लग रहा था कि कविता नहीं मिलने वाली है। क्‍योंकि मध्‍यप्रदेश की वो बचपन वाली 'बाल-भारती' तो पता नहीं कहां बिला गई। इस बीच कोर्स भी जाने कितनी बार बदला  होगा । naag punchmiअफ़सोस रह गया कि वो किताबें संभाल कर रखी जानी चाहिए थीं। कुछ तो रखी गयी हैं। पर ये वाली नहीं है । फिर एक दिन एक संदेश आया डॉ.टी.आर.शुक्‍ल का । सागर मध्‍यप्रदेश में हायर सेकेन्‍ड्री स्‍कूल में उन्‍होंने हमें फिजिक्‍स पढ़ाई थी। पढ़ाई के अलावा इतर विषयों पर भी उनसे खूब बैठकें होती थीं। नाता सागर से टूटा तो उनसे भी संपर्क टूट गया था। पर 'दैनिक भास्‍कर' के स्‍तंभ के ज़रिए उन्‍हें मेरा ई-मेल आई.डी. मिला और तब से उनसे ई-मेल संपर्क पुन: कायम हो गया । उन्‍हें भी मैंने संदेश भेजा था इस कविता के बारे में।

और कविता उन्‍होंने ने ही खोजी। उन्‍होंने लिखा-

प्रिय यूनुस
तुमने मुझे अपनी प्राथमिक-शाला में सन 1958-59 में बाल-भारती कक्षा 2 में पढ़ी कविता 'नागपंचमी' याद दिलाई। मन को काफी ज़ोर देना पड़ा तब कहीं कुछ अधूरे स्‍टेन्‍ज़ा याद आ पाए। उन्‍हें नीचे लिखे दे रहा हूं । अंतिम पैरा की दो लाइनें याद रह पाईं दो भूल गया हूं। भूले हुए एक दो पदों में शायद कुश्‍ती के दांव-पेंचों के बारे में विवरण था जो अब याद नहीं आ रहा है। पूरी कविता प्राप्‍त करने के लिए इतनी पुरानी पुस्‍तक प्राप्‍त कर पाना संभव नहीं है क्‍योंकि पुरानी पुस्‍तकों में छोटे बच्‍चों को ज्ञान देने का तरीक़ा भिन्‍न था अत: अब उन पुस्‍तकों को कौन संभाल कर रखेगा। इसके साथ ही मैं पहली कक्षा में पढ़ी हुई 'बारहमासी' कविता भी नीचे लिख रहा हूं जिसमें हिंदी माहों के अनुसार प्रत्‍येक माह में क्‍या प्राकृतिक विशेषताएं होती हैं, उनका सटीक विवरण दिया गया है।

नागपंचमी

ये नागपंचमी झम्मक झम

ये ढोल ढमाका ढम्मक ढम।

मल्लों की जब टोली निकली

यह चर्चा फैली गली गली,

दंगल हो रहा अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में।

वे गौर सलौने रंग लिये

अरमान विजय का संग लिये,

कुछ हंसते से मुसकाते से

मूछों पर ताव जमाते से।

ये पहलवान अंबाले का

ये पहलवान पटयाले का,

दोनो हैं दूर विदेशों में

लड़ आये हैं परदेशों में।

जब मांसपेशियां बल खातीं

तन पर मछलियां उछल आतीं,

यह दांव लगाया जब डट कर

वह साफ बचा तिरछा कट कर।

..................................................
यहां की पंक्तियां याद नहीं आ रही हैं

.................................................,

भगदड़ मच गयी अखाड़े में

चंदन चाचा के बाड़े में।



बारहमासी


चैत लिये फूलों की डाली

महकाने को आता,

लू के झोंकों में पलकर

वैषाख तभी आ जाता।

और ज्येष्‍ठ दुपहर भर तपकर

आंधी पानी लाता,

वर्षा के रिमझिम गीतों को

गा आषाढ़ सुनाता।

राखी के धागों में बंधकर

सावन झूम झुलाता,

नदी और सागर में पानी

भरने भादों आता।

लिये कांस के फूल गोद में

क्वांर तभी मुसकाता,

ज्वार बाजरे की बालों से

कार्तिक खेत सजाता।

अगहन गन्नों में रस भरता

खेतों को लहराता,

कंबल और रजाई की यादें

पूस ही ताजा करता।

माघ देखकर सरसों फूली

फूला नहीं समाता,

फागुन आमों की बौरों से

बागों को महकाता।


शुक्‍ल जी को कितने भी धन्‍यवाद कहे जाएं, पर अपनी स्‍मृति पर ज़ोर डालकर जिस तरह उन्‍होंने ये कविताएं हमें भेजी हैं, उसका ऋण अभी अदा नहीं किया जा सकता ।

ये भले ही कोई बहुत उत्‍कृष्‍ट कविताएं ना हों, साहित्‍य इन्‍हें शायद सिरे से रद्द कर दे--पर हमें भौतिकी पढ़ाने वाले डॉ. टी.आर.शुक्‍ल वाली पीढ़ी से लेकर मेरी पीढ़ी तक ने इन्‍हें अपने 'कोर्स' में पढ़ा और उनकी स्‍मृतियों में जीवित हैं ये कविताएं ।

इन दोनों कविताओं के रचनाकारों का नाम अगर पता चल सके, तो और अच्‍छा रहे ।

21 टिप्‍पणियां :

mukti said...

यूनुस जी,
मैंने चार-पाँच दिन पहले अपनी अम्मा का एक संस्मरणात्मक पोस्ट लिखी थी. उसमें ऐसी ही खो जाने वाली चीज़ों का जिक्र किया था. अम्मा कांस-बल्ले से टोकरियाँ बनाने की कला खूब अच्छे से जानती थीं. उनके देहांत के समय मैं सिर्फ़ १३ साल की थी, तो ये सब सीख नहीं पाई. पहले गाँव के घरों में लोग इन्हीं छोटी-छोटी डलियों में लाइ-चना वगैरह खाते थे, सुबह-सुबह कलेवा के समय. आज ये डलिया और टोकरियाँ दुर्लभ होती जा रही हैं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

इन कविताओं का बड़ा महत्व होता है। मुझे भी एक दो कविताएँ बचपन की याद आती हैं। ये हमें बचपन में अपने परिवेश से परिचय कराती हैं। नागपंचमी वाली कविता में जिस जीवन का उल्लेख है उस को कविता महसूस कराती है। हम इन कविताओं को पीछे छोड़ आते हैं, विस्मत कर देते हैं। लेकिन जीवन के किसी भी मोड़ पर ये पुनः याद आने लगती हैं। विशेष कर जब बच्चे या नाती पोते हमारी उस उम्र के होते हैं। कहीं यह जादू का असर तो नहीं?

Anita kumar said...

अरे बचपन की छूटी चीजों के खो जाने और फ़िर लाख कौशिश पर भी न मिलने की तड़प तो हमने भी महसूस की है।
मेरे भी बचपन की एक कविता है जो मुझे बहुत याद आती है लेकिन अब उसकी एक भी लाइन याद नहीं सिर्फ़ इतना याद है कि आल्हा ऊदल की कहानी थी। कविता इतनी ही लंबी थी जैसे झांसी की रानी वाली कविता लंबी है और पू्री एक कथा कहती है। आल्हा ऊदल भी चित्तौड़ के राणा के लिए वीरता से लड़े थे ऐसा ही कुछ भाव था उसमें। हमारा ख्याल था कि उसके रचियता मैथलीशरण गुप्त थे। इंटरनेट पर आने के बाद सब जगह खंगाला लेकिन वो कविता न मिली। अब सो्चते हैं कि काश उसे सिर्फ़ परिक्षा के लिए न रटा होता तो जितना आत्मिक आनंद तब वो कविता देती थी आज भी दे रही होती। क्या आप ने ऐसी किसी कविता के बारे में सुना है?

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत धन्यवाद डॉ.टी.आर.शुक्‍ल जी को! पूरी न सही, नागपंचमी की कविता का पर्याप्त जायका मिल गया।
हिन्दी ब्लॉगरों के लिये यह चुनौती है - सुबुक सुबुक वादी गज़ल कवितायें बहुत ठिल रही हैं, ऐसी कविता लिख कर देखें।

--- भालू ढोल बजाता ढम ढम
नाच रहा है मोर!

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

आइला आप के साथ भी ऐसा हुआ है !
शुक्ल जी को धन्यवाद।
मुझे तो अपनी एक बिलाई कविता बहुत दु:ख देती है। कुल जमा सात पोस्ट (उसे पुनर्जीवित करने के चक्कर में) भी वह संतोष न दे सके जो उसको रचते समय मिला था।

L.Goswami said...

ऐसा आपके साथ भी होता है ...की कुछ भूल जाने की बेचैनी सालती है ...

डॉ .अनुराग said...

यही होता है जिंदगी में साधारण प्रतीत होने वाली कुछ चीजे वक़्त के एक मोड़ पर कितनी असाधारण हो जाती है .....महत्वपूर्ण बात इसे महसूस करना है .....

Yunus Khan said...

buzz पर मनीष जोशी ने लिखा है---एक लाइन मुझे भी याद आई
.. रेल पेल आवाजाही, थी भारी भीड़ अखाड़े में.. चन्दन चाचा के बाड़े

Manish Kumar said...
This comment has been removed by the author.
Manish Kumar said...

सच कहूँ तो जिस उद्देश्य से ये कविता लिखी गईं उनमें ये पूरी तरह सफल हैं। आज की कविता विचारों का इतना गूढ़ ताना बुनने में व्यस्त है कि आम पढ़ने वाला उन्हें पूर्णतः नीरस पाता है।

siddheshwar singh said...

यह सिर्फ़ कविता का मामला नहीं है!

Unknown said...

आपकी तरह ही कुछ वर्ष पहले हम भी अपने बचपन में पढ़ी पन्त जी की एक कविता की याद कर रहे थे और तब एक मित्र/रिश्तेदार ने स्कूल के दिनों की सहेज कर रखी हिन्दी की किताब से लिख कर भेजी थी |और तो और,हाल में सिद्धेश्वर जी नें अमरीकी कवियित्री ईव मेरियम का ज़िक्र किया और हमें कुछ वर्ष पहले अपने बेटे के बचपन की याद हो आयी साथ ही उस कविता की जो जाने कहाँ सहेज कर रखी थी;अब मिल नहीं रही है|
जीवन का सार तो बीती यादों में ही छुपा है|इस बात पर... यूनुस आपकी राय में 'Nostalgia 'के लिए हिन्दी और उर्दू शब्द क्या होंगे ?

दीपक 'मशाल' said...

Yunus bhai, natmastak hoon aapke lekhan ke aage.. jaankar achchha laga ki aap bhi Sagar se jude hain.
aapne mujhe bhi bachpan me padhi kavitaaon ko yaad karne ko protsahit kiya hai... aabhar. :)

Atul Sharma said...

मुझे तो शुरु की चार पंक्तियाँ ही याद थीं। शायद कक्षा 3 या 4 में पढ़ी थी यह कविता। धुंधली यादों पर से कुछ धूल उड़ा दी आपने। शुक्रिया!

Atul Sharma said...

नागपंचमी कविता की शुरुआती पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
सूरज के आते ही भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
ये नागपंचमी झम्मक झम
ये ढोल-ढमाका ढम्मक ढम।

Rahul Singh said...

अतुल शर्मा जी से होकर यहां तक पहुंचा. संपर्क सूत्र बना 'बाल-भारती' akaltara.blogspot.com पर मैंने एक पोस्‍ट लिखा है, आप भी देखना चाहेंगे. रवि रतलामी जी ने भी नागपंचमी की बात की थी, जो हिस्‍सा, जितना जोड़ पाउंगा, उपलब्‍ध कराउंगा. विविध भारती कुछ तो कार्यक्रमों के कारण और बाकी आप सब खासकर कमल शर्मा जी के कारण सदा अपनी ही लगती है.

Manish said...

हम तो नये नवेले हैं… वो कविता कभी पढ़ी नहीं…
वैसे मुझे अजीब लगा…
न जाने कैसे कौन चीज कब महत्वपूर्ण हो जाये… यह तो खुद पर निर्भर करता है और उस चीज की खोज में हम दर दर भटकते हैं…

शायद आपको नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के बारे में कुछ पता हो…
न जाने कितने ज्ञान भण्डारों की चिता जली थी…
काश वे पुस्तकें और हस्तलिपियाँ आज होती…

खुद के छोटे से जी्वन में अच्छी पुस्तकों का महत्व समझ में आता है.… जब कोई दोस्त ऐसी कोई किताब ले जाता है तो यह नही लगता कि वह सिर्फ एक किताब ही ले जा रहा है…

हाँ ऐसी कविताओं के बारे में कुछ कहा जाय तो मुझे भी ऐसी ही एक कविता याद आती है… जो जाड़े में अखबार से पापा ने सुनाई थी

अरे बाप रे! इत्ता जाड़ा
बन्दर पढ़ने लगा पहाड़ा…

बाकी याद नही :P

Manish said...

इन बातों से दूर अगर कोई बात कही जाय तो ऐसे कही जा सकती है कि -
ये जो फांट आपने इस्तेमाल किये हैं, ये मेरे भी प्रिय फांट है…

मैं भी यही इस्तेमाल करता हूँ… समय का अभाव है इसीलिये ज्यादा सजाने की कोशिश नही करता बस एम एफ आफिस 2010 से सीधा पब्लिश कर देता हूँ :)

Kamlesh said...

नागपंचमी कविता का जितना हिस्सा मुझे याद है वह कुछ ऐसा है:

सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
कुश्ती है एक अजब रंग की
कुश्ती है एक अजब ढंग की
यह पहलवान अंबाले का
यह पहलवान पटियाले का
ये दोनों दूर विदेशों में
लड़ आए हैं परदेशों में
उतरेंगे आज अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

सुन समाचार दुनिया धाई
थी रेल-पेल आवाजाही
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

यहां शायद कुछ भूल रहा हूं।

तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

स्मृति पर बहुत जोर डालने पर भी फिलहाल आगे कुछ याद नहीं आ रहा। कुछ याद आया तो फिर लिखने की धृष्टता करूंगा।

धन्यवाद

कमलेश ढवले
kdhavle @ indiatimes dot com

Kamlesh said...

बाल भारती से एक और कविता:


चाहे जितना चाहो, भीगो
पहली पड़ी फुहार है
बड़ी दूर से थके-थके ये प्यारे बादल आए
देखो तो बरखा रानी का हम पर कितना प्यार है
कभी नगाड़े-से बजते हैं कभी चमकती है बिजली
गोरी-गोरी नदियों की अब देह चमकती है उजली
जहां जहां तक नज़रें जातीं पानी का संसार है

सीख रही हरियाली हंसना
पत्ते सीख रहे हैं गाना
चांद और सूरज दोनों ही
सीख रहे हैं शर्माना
चलो मनाएं आज साथियों बूंदों का त्यौहार है

स्पष्टतः ये कविता भी पूरी नहीं है। किसी को यदि याद हो तो प्रस्तुत करें।

क्या इन कविताओं के लिये मध्यप्रदेश पाठ्य पुस्तक निगम से संपर्क नहीं किया जा सकता? मैं फिलहाल विदेश में हूं, और यह भी नहीं जानता कि पा पु नि का अब आस्तित्व भी है या नहीं।

कमलेश ढवले

संध्या शर्मा said...

भले ये कविता पूरी नहीं है, लेकिन जितनी भी मिली पढ़कर इतनी ख़ुशी हुई कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, बस इतना ही कहूँगी बिलकुल अपने से ख्याल…शुभकामनायें

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