सिलसिला 'गुलज़ार-कैलेन्डर' का। दूसरा भाग: घर की दहलीज़ पर बाहर ही छोड़ दिया मुझे।
हम गुलज़ार के शैदाई इसलिए नहीं कि वो चौंकाते हैं। इसलिए भी नहीं कि उनके पास नाज़ुक-ओ-नर्म अलफ़ाज़ हैं। इसलिए भी नहीं कि उनकी शख्सियत कमाल है, आवाज़ ग़ज़ब है, वो पढ़ते भी कमाल का हैं। इन सबसे इतर गुलज़ार की संवेदनशीलता खींचती है।
गुलज़ार तो ख़ुदा को भी नहीं बख़्शते।
उनकी एक नज़्म के हिस्से पढिए।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू
ईसा के हाथों से गिर जाए सलीब
क़सम से, क़सम से ।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
बुद्ध का ध्यान भी उखड़ जाए
क़सम से, क़सम से ।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
तुझको बर्दाश्त ना कर पाए ख़ुदा
क़सम से, क़सम से ।
इसे भूपिंदर सिंह ने गाया है। गुलज़ार का एक और तेवर देखिए।
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी
जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो
उनके पास एक नज़र और नज़रिया है। और ये 'गुलज़ार-कैलेन्डर' में भी ख़ूब नज़र आता है।
कल मैंने बताया था कि 'गुलज़ार कैलेन्डर' असल में हमारी जिंदगी और रफ्तार से बेदख़ल हो चुकी चीज़ों की बात करता है। उन पर रची कविताएं हैं इस कैलेन्डर पर।
जनवरी के सफ़े पर बहुत पुराने ज़माने का एक कैमेरा नज़र आ रहा है लकड़ी के एक स्टैन्ड पर।
गुलज़ार इस कैमेरे के बारे में लिखते हैं--
सर के बल आते थे
तस्वीरें खिंचाने हमसे
मुंह घुमा लेते हैं अब
सारे ज़माने हमसे....।।
वो छाता जो दादा-परदादा के ज़माने की शान होता था। और जिसका नया रंग-बिरंगा रूप
फिर से चलन में आ रहा है।
गुलज़ार इस छाते के बारे में लिखते हैं--
सर पे रखते थे
जहां धूप थी, बारिश थी
घर पे दहलीज़ के बाहर ही
मुझे छोड़ दिया।
जब तक हम दिसंबर तक पहुंचेंगे, कई चीज़ों को देखने का हमारा नज़रिया बदल जाएगा।
ये गुलज़ार की कर सकते हैं।
'गुलज़ार-कैलेन्डर' का सिलसिला जारी रहेगा।
प्रिय मित्रो, आखिर तक पहुंचते-पहुंचते मैं इस कैलेन्डर का डाउनलोड-लिंक भी दूंगा।
9 टिप्पणियां :
बहुत खूब!
गुलजार कैलेंडर और उसके पहले की कविता बहुत अच्छे लगे। लेकिन सबसे पहली वाली कविता बहुत लचर लगी। हो सकता है समझ न पाये हों!
अनूप जी दरअसल ये नज़्म का हिस्सा है। ग़लती हमारी है। ये रही पूरी नज़्म।
चौदहवीं रात के इस चांद तले
सुरमई रात में साहिल के क़रीब *साहिल-किनारा
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू ।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में जो आ जाये तू
ईसा के हाथों से गिर जाए सलीब
क़सम से, क़सम से ।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
बुद्ध का ध्यान भी उखड़ जाए
क़सम से, क़सम से ।
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाये जो तू
तुझको बर्दाश्त ना कर पाए ख़ुदा
क़सम से, क़सम से ।
अरे भाईजी, आपकी क्या गलती। हमारे कहने से कोई नज्म थोड़ी गड़बड़ हो जायेगी। गुलजार जी बहुत अच्छे शायर और बेहतरीन इंसान हैं। वर्तमान समय की सबसे बेहतरीन शख्सियतों में से एक! लेकिन जरूरी थोड़ी की उनकी हर बात समझ में आये और पसंद भी आये। है न!
चलिये इसी बहाने पूरी नज्म पढ़ ली लेकिन हमारी राय वही है। मर्द राय!
:)
gulzar sahab ki guljariyat se sarabor kar gaya post..........shukriya......
गुलज़ार ...गुलज़ार ...
पहले वाली पर तो अनूप जी से ज्यादा क्या कहें लेकिन दूसरी तो सिर्फ गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं, इसे बांटने का धन्यवाद।
कब आयेगा दिसम्बर कैलेन्डर में?
गुलज़ार की नज़्मे कालेज फंक्शंस मे खूब पढी जाती और सराही जाती थी. नज़्म उलझी हुई है सीने मे... खूब मश्हूर थी. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी मे कविता ढूंढ लेते है और टेक्निकली बहुत अलग.
लाजवाब.
क्या खूब गुलज़ार आये ..कसम से कसम से ..
इस अद्भुत कलेंडर से मिलवाने के लिए शुक्रिया . . इसकी तारीखें भी महकती होंगी 'गुलज़ार' सी !
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