Thursday, October 7, 2010

सिलसिला 'गुल़ज़ार-कैलेन्डर' का। पहला भाग: जो चीज़ें बेजान थीं अब तक जिंदा हैं।

इस बात को हम कई बार ज़ाहिर कर चुके हैं कि हम गुलज़ार के शैदाई हैं।
कब हुए, कैसे हुए, पता नहीं।
गुलज़ार हमारी जिंदगी में एक 'इलहाम' की तरह आए

वो एक 'हादसा' नहीं थे। वो एक 'हैरत' थे।
वो 'इश्‍क़' के सुनहरे अहसास की तरह थे।
बहुत बार 'आनंद' देखी। रेडियो के लिए उस पर लिखा भी।
गुलज़ार की ये पंक्तियां जैसे मन में बसी रह गयी हैं।


मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको



इस बरस अचानक किसी ने मेल पर गुलज़ार कैलेन्‍डर भेजा तो जैसे हर महीना 'रोशन' हो गया।
इसे बहुत पहले ही आपके साथ 'शेयर' करना चाहता था पर किसी वजह से टलता रहा।
इस बीच जब पिछले दिनों जयपुर जाना हुआ तो भाई पवन झा ने इसकी 'हार्ड-कॉपी' भी भेंट कर दी। जो हमारे संग्रह की शान बनी रहेगी।

'तरंग' पर अपनी लम्‍बी ग़ैर-हाजिरी को इस कैलेन्‍डर के एक-एक पन्‍ने के ज़रिए मिटाया जा रहा है। इस कैलेन्‍डर के हर पन्‍ने पर एक बेमिसाल तस्‍वीर है और साथ में है एक 'नज़्म'। ये है कैलेन्‍डर का पहला पन्‍ना। 1

गुलज़ार कैलेन्‍डर की थीम है आम जिंदगी की खोई हुई चीज़ें। वो चीज़ें जो समय के प्रवाह में पीछे छूट गयीं। इस पन्‍ने की इबारत पढिये यहां नीचे भी--

अकबर का लोटा रखा है शीशे की अलमारी में
राना के 'चेतक' घोड़े की एक लगाम
जैमल सिंह पर जिस बंदूक से अकबर ने
दाग़ी थी गोली
रखी है।

शिवाजी के हाथ का कब्‍जा
'त्‍यागराज' की चौकी, जिस पर बैठ रोज़
रियाज़ किया करता था वो
'थुंचन' की लोहे की क़लम है
और खड़ाऊं तुलसीदास की
'खिलजी' की पगड़ी का कुल्‍ला

जिन में जान थी, उन सबका देहांत हुआ
जो चीज़ें बेजान थीं, अब तक जिंदा हैं

--गुलज़ार।

ये कैलेन्‍डर का पहला पन्‍ना है।
यानी उसका कवर।

कल हम दो दो महीनों से शुरू करके दिसंबर तक पहुंचेंगे।

कैलेन्‍डर के क्रेडिट्स- अच्‍युत पल्‍लव और विवेक रानाडे

14 टिप्‍पणियां :

सतीश पंचम said...

गुलज़ार के तो हम भी फैन हैं जी।

कैलेण्डर शानदार रहा। अगली तारीखों का इंतजार रहेगा।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत सुन्दर।

डॉ .अनुराग said...

mere desktop par hai.....

dilip said...

EXCELLENT

विष्णु बैरागी said...

केलेण्‍डर की हार्ड प्रति मिलने का पता और मूल्‍य भी सूचित कर दीजिए।

कहते हैं, सुख बॉंटने से बढता है।

Abhishek Ojha said...

पूरा कैलेंडर सोफ्ट कॉपी में भी कहीं है क्या ?

Abhishek Ojha said...

mil gaya :)

Yunus Khan said...

है भई है। मुबारक हो। वैसे अपन भी आखिर में डाउनलोड लिंक दे ही देंगे।

सुशील छौक्कर said...

जिसने भी बनाया उसकी तारीफ करनी चाहिए। वैसे हमें भी चाहिए ये सुन्दर और साहित्यिक कलेण्डर। कहाँ से मिलेगा जी जल्दी।

कुश said...

हार्ड कॉपी कैसे मिलेगी.. पवन जी से पता लगाइए.. :)

नितिन | Nitin Vyas said...

Bahut khoob.

Yunus Khan said...

कुश हार्ड-कॉपी का पता लगाया जाएगा। वैसे मैंने कैलेन्‍डर के क्रेडिट्स दिये हैं। इन बंदों को मेल करें तो वो भी मदद करेंगे। आपका संदेश पवन जी तक पहुंचाया जा रहा है।

विवेक रस्तोगी said...

हम तो डाऊनलोड ही कर लेंगे :)

amitesh said...

यह भी देखें
http://chavannichap.blogspot.com/2010/10/blog-post_9322.html

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