सिलसिला गुलज़ार कैलेन्डर का: पांचवां भाग--'याद आते हैं वो सारे ख़त मुझे'
गुलज़ार से सहमत और असहमत होना आसान है।
अपनी शख्सियत पर एक बड़ा-सा ताला लटका रखा है उन्होंने।
उनके क़रीब जाना मुश्किल है।
कुछ ख़ुशनसीब हैं जिन्हें उनकी नज़दीकी हासिल होती है।
हम उनमें से नहीं हैं।
हमें उनकी रचनाओं से मतलब है। और उन्हें पढ़कर अभिभूत होते रहते हैं।
कितनी तरह के अहसास साथ लेकर चलता है ये शायर।
इस नज़्म का उन्वान है 'ईंधन'
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला - तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज
रोज़ सवेरे आकर गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था - अगला पन्ना है अगस्त का।
बरसों बाद -
मैं श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात
इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
ऐसी नज़्मों के शायर ने 'गुलज़ार-कैलेन्डर' में जिंदगी से बेदख़ल हो रही...पुराने वक्तों की चीज़ों पर लिखा है। और बहुत ख़ूब लिखा है। कविता की छोटी-सी पुडिया है ये कैलेन्डर।
आईये अब चलें जुलाई के पन्ने की तरफ़।
यहां पुराने ज़माने का रैमिंगटन या हाल्डा का टाइपराइटर नज़र आ रहा है। बेहद पुराना। शायद पोर्टेबल भी हो। कह नहीं सकते। और गुलज़ार की पंक्तियां देखिए:
हर सनीचर जो तुम्हें लिखता था दफ्तर से
याद आते हैं वो सारे ख़त मुझे
इस पन्ने पर 'बुश' का 'बोनस' मॉडल वाला एक बेहद पुराना रेडियो नज़र आ रहा है।
ट्रांजिस्टर कह लीजिए।
इस पर गुलज़ार की नामी पंक्तियां नज़र आती हैं।
नाम गुम जायेगा
चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है
गर याद रहे।
अपनी राय देते रहिए।
4 टिप्पणियां :
बज़ पर गुलज़ार के कैलेण्डर के माध्यम से आपके विचार पढ़ रही हूँ. पर आप मुझे ये बताइये कि ये कैलेण्डर किसने छापा? कहाँ से छापा? अगले साल छपेगा क्या? और मुझे कैसे मिलेगा?
बहुत ही सुन्दर प्रयास।
युनूस साहब,
गुलजार साहब की यह सौगात हम तक पहुँचाने का तहे दिल से शुक्रिया.
युनूस साहब,
गुलजार साहब की यह सौगात हम तक पहुँचाने का तहे दिल से शुक्रिया.
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