कभी तो मिलेगी बहारों की मंजिल राही: मजरूह
आज मजरूह का जन्मदिन है।
मजरूह....एक नायाब फिल्म-गीतकार। एक बेमिसाल शायर।
मजरूह के कुछ शेर तो जैसे मुहावरे बन गये हैं लिखने-पढ़ने वाले लोगों के लिए।
हमारे संगीत-ब्लॉग 'रेडियोवाणी' पर तो मजरूह का लिखा एक जुमला...दिल की आवाज़ बनकर चस्पां है--'हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं'। ये जुमला हमने मजरूह के इस शेर से लिया है--
रोक सकता हमें ज़िन्दांन-ए-बला क्या मजरूह
हम तो आवाज़ हैं दीवारों से छन जाते हैं
मजरूह का ही एक और शेर--जिसे अकसर कहा जाता है--
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ आते गये कारवां बनता गया।
उनका एक और शेर--जो हमारे लिए एक 'लाइट-हाउस' की तरह है--
देख जिंदां से परे जोशे जूनू जोशे बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर ना देख।
मजरूह सिर्फ एक शायर या सिर्फ एक गीतकार नहीं थे। वो एक शायर-गीतकार थे। तभी तो उनके गानों का कारवां सन 1946 से लेकर शाहरूख़ ख़ान के ज़माने तक जाता है। शाहरूख़ की एक फिल्म 'कभी हां कभी ना' के लिए उनहोंने लिखा--'वो तो है अलबेला/ हज़ारों में अकेला/ सदा तुमने ऐब देखा/ हुनर तो ना जाना'।
हमारे घरों के नालायक और शरारती माने जाने वाले लड़कों पर ये गाना कितना फिट बैठता है। खासकर पढ़ाई के अलावा खेलों या कलाओं में दिलचस्पी रखने वाले और घर का विरोध सहने वाले लड़कों पर।
मजरूह पढ़े लिखे वर्ग में अपने बहुत ही साहित्यिक, संवेदनशील गीतों के लिए याद किये जाते हैं। जैसे--'हम हैं मताए-कूचओ-बाज़ार की तरह' या फिर 'शाम-ए-ग़म की क़सम' या 'तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है'। यही मजरूह हैं जो इस गाने के ज़रिये हमें जज्बाती कर जाते हैं--
जब हम ना होंगे जब हमारी ख़ाक पर तुम रूकोगे चलते चलते
अश्कों से भीगी चांदनी में एक सदा सी सुनोगे चलते चलते
वहीं पर कहीं हम तुमसे मिलेंगे बनके कली बनके सबा बाग़-ए-वफा में
रहें ना रहें हम महका करेंगे।।
यही मजरूह इस गाने के ज़रिये हमें उम्मीद दे जाते हैं। यक़ीन मानिए ये गाना तो जैसे उम्मीद का कभी ना खत्म होने वाला स्त्रोत है।
कभी तो मिलेगी कहीं तो मिलेगी बहारों की मंजिल राही
लंबी सही दर्द की राहें, दिल की लगन से काम ले
आंखों के तूफां को पी जा, आहों के बादल थाम ले
दूर तो है पर दूर नहीं है नज़ारों की मंजिल राही
यही मजरूह हताश दिलों की आवाज़ बन जाते हैं। दिलों की बेक़रारी और बेबसी की आवाज़।
ऐ दिल कहां तेरी मंजिल, ना कोई दीपक है ना कोई तारा है
गुम है ज़मीं दूर आसमां।
किसलिए मिल मिल के दिल टूटते हैं
किसलिए बन बन महल टूटते हैं
पत्थर से पूछा, शीशे से पूछा
ख़ामोश है सबकी जुबां
ऐ दिल कहां तेरी मंजिल।
लेकिन मजरूह एक खालिस गीतकार भी थे। और साहिर से उनकी इसी बात पर बहस थी कि फिल्मों में गाने किरदार के मिज़ाज के हिसाब से होने चाहिए। इसीलिए तो कभी वो लिखते हैं--'गे गे गेली ज़रा टिम्बकटू। काठमान्डू काठमांडू काठमांडू गेले हू/ मैं हूं लोहा चुंबक तू'। बहुत बाद के ज़माने में मजरूह ने लिखा--'अंग्रेज़ी में कहते हैं कि आय लव यू'। जिस पर अमिताभ थिरकते नज़र आये।
बस कुछ गानों के बहाने मजरूह को याद करना था।
हम कोई रिसर्च नहीं कर रहे थे। ना ही श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे
बस अपने दिल की बातें कहनी थीं सो कह दीं।
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