Sunday, October 10, 2010

सिलसिला गुलज़ार कैलेन्‍डर का। चौथा भाग: 'आठ दस की जब कभी गाड़ी गुज़रती है'

कविता कोई मजमा या बाज़ीगरी नहीं कि वो हमेशा चौंकाए।
उसमें जिंदगी की धड़कनें सुनाई देनी चाहिए।
गुलज़ार पर इस बाज़ीगरी के इल्‍ज़ाम लगते रहे हैं।
पर ज़रा बताईये कि क्‍या हिंदी उर्दू में हमारे पास ऐसा बारीक लिखने वाले कवि हैं।
कितनी कविताएं हैं हमारे पास ताले, छाते, कैमेरे, क़लम जैसी रोज़मर्रा की चीज़ों पर।
यही बारीक obsevation गुलज़ार कैलेन्‍डर की ताक़त है।
वो तो अदाकार नसीरउद्दीन शाह को भी अपने नज़्म में उतार लेते हैं।
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ये रही नसीर पर लिखी नज़्म

एक अदाकार हूं मैं
जीनी पड़ती हैं मुझे कई जिंदगियां
एक हयाती में मुझे
मेरा किरदार बदल जाता है हर रोज़ सेट पर
मेरे हालात बदल जाते हैं
मेरा चेहरा भी बदल जाता है अफ़साना-ओ-मंज़र के मुताबिक़
मेरी आदत बदल जाती है।
और फिर दाग़ नहीं छूटते पहनी हुई पोशाकों के
ख़सता किरदारों का कुछ चूरा-सा रह जाता है तह में
कोई नुकीला-सा किरदार गुज़रता है रगों से
तो ख़राशों के निशां देर तलक रहते हैं दिल पर
जिंदगी से उठाए हुए ये किरदार ख़याली भी नहीं हैं
कि उतार जाएं वो पंखे की हवा से
सियाही रह जाती है सीने में अदीबों के लिखे जुमलों की, सीमीं परदे पे लिखी  
सांस लेती हुई तहरीर नज़र आता हूं
मैं अदाकार हूं लेकिन
सिर्फ अदाकार नहीं
अपने इस वक्‍त की तस्‍वीर भी हूं।

गुलज़ार कैलेन्‍डर इसी मायने में बेहद अहम है। क्‍योंकि जिंदगी से छूटती चली जा रही चीज़ों पर गुलज़ार ने लिखा है इसमें।
मई के सफ़े पर एक पुराने ज़माने का प्रोजेक्‍टर नज़र आ रहा है।
और गुलज़ार लिखते है--

वो सुरैया और नरगिस का ज़माना
सस्‍ते दिन थे एक शो का चार आना
अब न सहगल है, न सहगल-सा कोई
देखना क्या और अब किस को दिखाना
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जून के सफ़े पर पुराने ज़माने का स्‍टीम इंज़न नज़र आ रहा है सजेशन के तौर पर।
यहां इंजन से धुंआ निकालने वाला हिस्‍सा ही नज़र आ रहा है।
और दिल को चीर डालने वाली गुलज़ार की लाइनें--

दिल दहल जाता है
अब  भी शाम को
आठ दस की जब कभी
गाड़ी गुज़रती है

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अपने इस कैलेन्‍डर में गुलज़ार ने कई बारीक अहसास पकड़े हैं।
हम इस कैलेन्‍डर को 'तरंग' के ज़रिए आप तक पहुंचा रहे हैं ताकि बीतता हुए इस साल की इबारत हमारी जिंदगियों पर काफी गहरी छाप छोड़ जाए।
कल फिर दो सफ़े आयेंगे गुलज़ार कैलेन्‍डर के।

6 टिप्‍पणियां :

आशुतोष पार्थेश्वर said...

आहिस्ता-आहिस्ता खून में समाते हैं गुलज़ार, भोली सी सिहरन और अपनापे के एहसास के साथ उनके शब्द थिर होते जाते हैं, कहीं गहरे, बहुत गहरे । इस प्रस्तुति के लिए बधाई, मन से !

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

आशीष मिश्रा said...

बहोत ही अच्छी रचनात्मक प्रस्तुति

अनुपमा पाठक said...

nice post!
made a wonderful reading!
regards,

हरीश झरिया said...

उत्तम रचना है… उच्च्कोटि का लेखन…

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

"और फिर दाग़ नहीं छूटते पहनी हुई पोशाकों के
ख़सता किरदारों का कुछ चूरा-सा रह जाता है तह में
कोई नुकीला-सा किरदार गुज़रता है रगों से
तो ख़राशों के निशां देर तलक रहते हैं दिल पर "

waah ,
har umr har pesha ji leta hai ek naayak ...maza aa gaya !

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