slumdog और white tiger के बहाने कुछ सवाल
Danny Boyle की फिल्म ‘Slumdog Millionaire’ को चार Gloden Globe अवॉर्ड क्या मिले, देश में एक झूठे-गौरव की लहर दौड़ गई है । ऐसा माना जा रहा है कि ये पुरस्कार भारतीय फिल्म जगत में कोई नई लहर पैदा कर देंगे । कयास लगाए जा रहे हैं कि अब ऑस्कर भी दूर नहीं है । पर कुछ नए-पुराने सवाल उठ खड़े हुए हैं ।
सबसे पहला सवाल तो ये है कि क्यों पश्चिम को केवल भारत से आई फिल्मों में यहां की ग़रीबी, विवशताएं, अव्यवस्था और भभ्भड़ देखना ही सुहाता है । यही वो विषय हैं जिन्हें देखकर पुरस्कारों की झोली बहुधा खोल दी जाती है । ऐसा पहले भी होता रहा है । सत्यजीत राय तक पर ये इल्जा़म लगे हैं कि उन्होंने भारत की ग़रीबी को भुनाया और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की । बहरहाल slumdog मुंबई के जिस हिस्से को दिखाती है वो है धारावी का हिस्सा । धारावी जिसे एशिया की सबसे बड़ी झोपड़-पट्टी कहा जाता है । इस फिल्म्ा को भारत में वितरित कर रहे 'फॉक्स सर्चलाईट' के प्रमुख का कहना है कि ये फिल्म दिखाती है कि किस तरह भारत बदल रहा है । और दुनिया के आकर्षण का केंद्र बन रहा है ।
slumdog भारत के एक मशहूर राजनयिक विकास स्वरूप की पुस्तक Q and A पर आधारित
है । इस समय दक्षिण अफ्रीक़ा में भारतीय उच्चायोग में तैनात विकास स्वरूप की ये पहली पुस्तक है । जिसमें ये बताया गया है कि किस तरह एक ग़रीब वेटर राम मोहम्मद थॉमस टेलीवीजन के एक मशहूर क्विज़ शो में बारह सवालों का जवाब देता है और किस्मत के झोंके में अचानक करोड़पति बन जाता है । ये पुस्तक साल 2005 में प्रकाशित हुई थी । बाद में बी.बी.सी. पर जब इस पुस्तक पर आधारित नाटक को सर्वश्रेष्ठ नाटक का पुरस्कार मिला तो ब्रिटिश फिल्म निर्माण संस्था film four ने इसके फिल्म-अधिकार ग्रहण कर लिये और तब बनी danny boyle के निर्देशन में फिल्म sulmdog millionaire.
सुना जा रहा है कि विकास स्वरूप ने इस पुस्तक पर फिल्म-निर्माण की पेशकश भारत के कई प्रोड्यूसर्स से की थी । लेकिन सभी ने इसे ठुकरा दिया था । तब जाकर उन्होंने फिल्म-फोर के इसके अधिकार दिये । ज़ाहिर है कि 'फिल्म-फोर' को इस पटकथा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाने का अच्छा मसाला नज़र आया होगा । तभी तो चाहे निर्देशक डैनी बॉयल हों या फिर पटकथा लेखक simon beaufoy सभी ने मुंबई के बदसूरत चेहरे को उकेरने में अपनी सारी कला झोंक दी है । यानी ये फिल्म 'समकालीन भारत के यथार्थ को संपूर्णता में क़तई नहीं दिखाती । बल्कि उसके उस हिस्से को चुनकर दिखाती है, जिसे संसार कौतुहल की दृष्टि से देखता है । ऐसा भारतीय और विदेशी फिल्मकार पहले भी करते आए हैं ।
दूसरा बड़ा सवाल ये है कि पुरस्कार के मंच पर भारतीय फिल्म को खड़ा करने और साबित करने के लिए आज भी एक विदेशी निर्देशक दरकार होता है । इस फिल्म के निर्देशक और निर्माता के तौर पर भारतीय नाम होते तो क्या पुरस्कार समारोहों में ये इतनी चमक बिखेर पाती । भले ही 'गोल्डन ग्लोब' पुरस्कार दुनिया भर के अख़बारों, रेडियो और टेलीविजन स्टेशनों के ज़रिए किए गए 'पोल' के आधार पर दिये जाते हों पर इनके पश्चिमी पूर्वाग्रह से इंकार नहीं किया जा सकता । ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब दोनों ही पूर्वाग्रहों का पिटारा नज़र आते हैं । और ये बार बार साबित भी होता आया है ।
'गोल्डन-ग्लोब' हो या ऑस्कर ...दोनों ही पुरस्कारों के लिए फिल्म-कंपनियों को बाक़ायदा अपनी फिल्म की मार्केटिंग करनी पड़ती है और एक रणनीति तैयार करके बहुत सारा पैसा झोंकने के बाद ही मंच पर ट्रॉफी हवा में लहराने का मौक़ा मिलता है ।
अरविंद अडिया की 'मैन बुकर' से पुरस्कृत पुस्तक ‘The White Tiger’ भी वही करती है जो slumdog ने किया है । अडिगा ने एक बेहद मामूली कहानी को बड़े दिलचस्प ढंग से बयान किया है । और भारत के उस हिस्से को खूब रस लेकर दिखाया है जिसमें ग़रीबी, अंधविश्वास, अपराध, बेईमानी, बीमारियां और शोषण
है । अडिगा बड़े ज़ोर-शोर से बताते हैं कि दिल्ली दो देशों की राजधानी है । एक उस भारत की जो अंधेरे में है और एक उस शहरी भारत की जो उजाले में है । अडिगा ने अपनी सारी मेहनत शिल्प में की है । कथावस्तु बेहद लचर और मामूली है । इस पुस्तक को भी प्रकाशकों ने छापने से इंकार कर दिया था । बड़ी मुश्किल से वे इसे छपवा सके । उसके बाद से ये बुक-स्टॉल्स से लेकर ट्रैफिक-सिग्नलों तक सब जगह छाई हुई है । इस किताब को पढ़कर आपको अफ़सोस ही होता है । आप ठगे हुए महसूस करते
हैं । slumdog ने भी वही किया है । एक भारतीय लेखक की पुस्तक को भुनाया है और खुद को millionaire बनाया है ।
अडिगा और बॉयल दोनों भारत की ग़रीबी की मार्केटिंग करके सुर्खियों में आए कलाकार हैं ।
लेकिन 'स्लमडॉग' को मिला एक 'गोल्डन ग्लोब' वाक़ई हर्षित करता है । संगीतकार ए.आर.रहमान को उनके संगीत के लिए विश्व स्तर पर जो नाम मिला है उससे वाक़ई उम्मीद बंधती है ।
18 टिप्पणियां :
http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/03/23.html
Please read this Link --
Here are some of my point of views from the same Link/ article
ऑस्कर" व उसके " तमगे " या "तोहफे" = "Awarda" --अमरीकन वर्चस्व को कायम रखने मेँ कोई कसर बाकी नहीँ रखता --
अगर भारतीय फिल्म ऐसी हो, जो भारत को दकियानूसी, रुढीवादी , पुरातनपँथी बता रही हो, जैसे दीपा मेहता जी की,"वोटर" या (सत्यजीत रे की पुरानी फील्म, " पाथेर पँचाली" तो,
उसे अवश्य "तेज केँद्र मेँ चुँधियाती रोशनी " = मतलब " लाइम लाईट" मेँ खडा कर के ऐवोर्ड से नवाजा जाता रहा है
--" देवदास" = नई , उसके गीत सँगीत, आम अमरीकी " मस्तिक्ष प्रवाह" = " वेव लेन्थ" से अलग है -
- भारतीय सँस्कृति, हमारी जड से फूली, कोँपलोँ से सिँचित वृक्ष है -
जिसकी छाया भारतीय, मानस के अनुरुप है
-उसी तरह, अमरीका का अपना अलग रोजमर्रा का जीवन है जिस के आयाम, उसके सँगीत, रहन सहन, प्रथाएँ , त्योहार, जीवन शैली सभी मेँ प्रत्यक्ष होते हैँ
- ये कहना, शायद उन सभी को बुरा भी लग सकता है कि, जब तक आप अमरीका आकर, एक लँबी अवधि तक ना रहेँ, आप इस देश को अच्छी तरह पहचान नहीँ पाते !
एक काल , एक फूल, एक समय नहीँ खिलता !!
-- हर देश की सँस्क़ृति उसे अपनी जड से जोडे रखे तभी वह मजबूत होकर पनपती है
-- ना कि दूसरे से उधार ली गई सोच या समझ !!
warm regards Yunus bhai -
-Lavanya
sahi sawal uthaya hai.main bhi likh raha hoon.
सहमत.
मैं भी ऐसा ही मानता हूँ.
अच्छा और सही लिखा है.
ना यूनुस भाई...मैं सहमत नहीं हूं. सवाल सिर्फ अवॉर्ड का नहीं है. बल्कि सवाल अवॉर्ड का तो है ही नहीं. सवाल ये है कि उस झोपड़पट्टी में रहने वालों की बात कौन करेगा जिसकी तरफ आपका बॉलिवुड देखता तक नहीं है? बॉलिवुड फिल्मों में तो बस मॉल्स, मर्सिडीज़ और माया दिखाई जाती है, आम आदमी की बात करना तो उसने छोड़ दिया है। बल्कि उसके लिए तो आम आदमी एग्जिस्ट ही नहीं करता क्योंकि वह कंस्यूमर नहीं है। अगर ग़रीबी, विवशताएं, अव्यवस्था और भभ्भड़ दिखाती फिल्म की वजह से आपको तकलीफ हुई है, तो मैं आपसे दो सवाल पूछना चाहता हूं...क्या आप मानते हैं कि यह भारत का सच नहीं है? अगर नहीं, तो क्या भारत के इस सच को छुपाकर और 'सत्यमरूपी' तरक्की को दिखाकर बॉलिवुड ठीक कर रहा है? बॉलिवुड सपने बेच रहा है...कोई तो सच दिखाए.
यूनुस भाई, आपने अपनी प्रखर टिप्पणी में एक साथ बहुत सारे सवाल उठाये हैं. यह बात रेखांकनीय है कि पश्चिम को भारत की गरीबी ही देखना पसन्द है, लेकिन इसी सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि खुद भारत के फिल्मकारों को भारत की अमीरी ही नज़र (और रास) आने लगी है. यानि एकांगिता दोनों ही तरफ है.
और जहां तक मार्केटिंग का सवाल है, क्या हमारे यहां फिल्मों की मार्केटिंग नहीं होती? आमिर या शाहरुख या अक्षय भी तो मार्केटिंग ही करते हैं, भले ही वह फिल्म को पुरस्कार दिलाने के लिए नहीं, चलाने के लिए की जाती हो. वैसे, आमिर ने लगान को पुरस्कार दिलाने के लिए मार्केटिंग की तो थी ही, यह अलग बात है कि उन्हें अपने प्रयासों में कामयाबी नहीं मिली.
बहरहाल, एक बढिया टिप्पणी के लिए बधाई.
bahut sahi likha ahai aapne...
युनुस भाई हम भारतीयों की तो आदत ही है हर बात मे खुश होने की । award मिला अच्छी बात है पर जैसा की आपने लिखा है उससे agree करते है ।
मैं विवेक जी से सहमत हूँ, जिस देश की 30 प्रतिशत जनता को आज भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं है, जहाँ साक्षरता दर बेहद पिछड़ी है, भ्रष्टाचार में हम कई गरीब देशों के भी नीचे गिने जाते हैं… ऐसे में फ़िल्मों में सिर्फ़ चकाचौंध दिखाना कहाँ तक ठीक है, यदि कल कोई विदेशी फ़िल्म निर्माता विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं पर फ़िल्म बनाकर ऑस्कर ले जाये तो क्या हम इस समस्या को दरी के नीचे खिसकाने का प्रयास करेंगे? आखिर भारत की "वास्तविकता" क्या है? सिर्फ़ अम्बानी, सत्यम, टाटा या 21,000 का सेंसेक्स? यदि भारत के चोपड़ा, खन्ना या खान भारत की "असली" समस्याओं पर फ़िल्म बनाने की हिम्मत नहीं रखते तो इसमें किसका दोष है? ठीक है कि यदि कोई "बाहरी व्यक्ति" भारत की बुराई जमाने को दिखाये तो मानसिक संत्रास होता ही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि समस्यायें हैं ही नहीं और वह सिर्फ़ झूठ दिखा रहा है… जिसने मधुर भंडारकर की "ट्रैफ़िक सिग्नल" देखी है और उन्हीं की "कारपोरेट" देखी है उन्हें "सन्तुलन" का मतलब समझना चाहिये… रही बात "अंग्रेज" पुरस्कारों की तो हम अभी भी "मानसिक गुलाम" हैं और चाहते हैं कि "गोरा साहब" हमें दुलराये और हमारी तारीफ़ करे, तभी हमारा जन्म सार्थक होगा… पाखण्ड से भरी हुई है यह फ़िल्मी दुनिया…
पाथेर पांचाली छाप चीज है - बदहाली का कलात्मक वर्णन?
आपने अपनी बातो को तर्क ओर वास्तविकता के कुछ पहलुओ के संग रखा है...९० प्रतिशत सहमत हूँ...ऐसा नही है की हिन्दुस्तान में सार्थक फिल्म नही बनती....पर कितने लोगो ने "आमिर ",माराठी फ़िल्म "श्वास ",wednesdaay, मंथन ,मिर्च मसाला ,कलयुग ,मंडी,धारावी ,ब्लेक friday,परजानिया ,स्पर्श(नसीर अभिनीत ),दो बीघा जमीन ,गरम हवा ,विशाल भारद्वाज की मकबूल को हिट बनाया ......
दरअसल पिछले साल व्यावासिक स्तर पर भी सफल एक केवल एक मूवी आला दर्जे की रही है "तारे जमीन पर "जिसके सारे पक्ष उज्जवल है....लेकिन शायद उसे भी अवार्ड न मिले....
किसी भारतीय को पुरूस्कार मिलना गर्व की बात है पर यही पुरूस्कार उसे किसी भारतीय के सार्थक काम पर मिलता तो दुगुनी खुशी होती है..नंदिता दास की एक मूवी थी जिसमे उन्होंने एक राजिस्थानी महिला का चरित्र निभाया था जो अपने साथ हुए बलात्कार के ख़िलाफ़ लड़ती है....अफ़सोस उस साल किसी जूरी ने उन्हें या उस फ़िल्म को किसी पुरूस्कार के लायक नही समझा .ना ही उन्हें दर्शक मिले....उस साल फिल्फेयर अवार्ड पर शारुख नाचते रहे ओर लोग तालिया पीटते रहे...शायद उसका नाम भंवर था.....
दरअसल सवाल नीयत का है....क्यों किसी को रंग दे बसंती की तरह भारत के उजले पक्ष नही दिखते ?क्यों राकेश ओमप्रकाश महरा ओर मणि रत्नम की मूवी में समस्याओं के बावजूद भारत का एक उजला पक्ष दिखता है ?
ऐ आर रहमान दरअसल इस पुरूस्कार से कही ऊँचे है....कही अधिक प्रतिभाशाली.....इसलिए वे बेजोड़ है..पुरूस्कार लायक काम तो वे कई बार कर चुके है.....वहां पुरूस्कार के पीछे होने वाली मार्केटिंग का खासा रोल होता है
हाँ भारतीय मीडिया ओर भारतीय फ़िल्म जगत को इस दास मानसिकता से उबरना होगा.....इरान फिल्मजगत ने अपनी अस्मिता बनाए रखते हुए विश्व को कई बेजोड़ कहानी दी है....हमें उनसे सीख लेनी चाहिए....
यूनुस विदेशी सिनेमा भारत की गरीबी को भुनाता रहा है वो अपनी जगह है और उस बाबत आपकी कही बातें ज़ायज हैं। पर मुद्दा ये है कि जो दिखाया गया है वो भी भारत ही का कटु सत्य है। और जैसा विवेक और सुरेश जी ने कहा भारतीय व्यवसायिक सिनेमा भी समाज के ऊपरी धड़े की कहानी कहने में मशगूल है तो वो भी तो वांछित स्थिति नहीं हैं ना। मेरा मानना है कि फिल्म को उसकी कथा वस्तु पर आँकना चाहिए, विदेशी पुरस्कारों की पूर्वाग्रह ग्रसित मानसिकता से जोड़कर हम इस तरह के सिनेमा के औचित्य पर सवाल उठाना सही प्रतीत नहीं होता।
विवेक और सुरेश जी se sahamat
सत्यजीत राय से शुरू यह मजाक कहाँ खत्म होगा पता नही . भारत की गरीबी और उसके साइड इफेक्ट बहुत बड़ा मसाला है फ़िल्म वालो के लिए .
मैंने स्लम डॉग तो नहीं देखी तो उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, पर आप जैसा व्हाइट टाइगर के बारे में लिख रहे है उसे पढ़कर लगता है की आपने अपनी राय इधर उधर से पुस्तक के बारे में रिपोर्ट/समाचार/समीक्षा वगैरह पढ़कर बना ली है.
आपने या यहाँ टिप्पणी करने वाले ज्यादातर लोगों ने इसे पढ़ा ही नहीं है. कृपया अपनी स्वतंत्र राय बनायें, एक बार अगर यह पुस्तक आपने पढ़ ली होती तो शायद आप इसकी आलोचना न करते बल्कि सहमत ही होते. पूरे उपन्यास में नायक बलराम हलवाई के दृष्टीकोण से दो राय नहीं हुआ जा सकता, और जैसा की इस उपन्यास में लिखा है. इसमे मोंल और काल सेंटर वाला इंडिया भी है और वह भारत भी जो बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली की यमुना किनारे की झोपड़ियों में में बसता है.
सच हमसे किसी हाल में सहन नहीं होता और झूठ हमें जान से प्यारा है.
भाई, मैंने स्लमडॉग भी देखी है और व्हाईट टाईगर भी पढ़ी है ।
बलराम हलवाई के दृष्टिकोण पर मैंने कुछ नहीं कहा ।
मेरा मानना है कि एक लचर कहानी को एक अच्छे शिल्प के ज़रिए बुना गया है और बेहद मामूली पुस्तक
को मैन बुकर मिला है ।
मैं आज भी व्हाईट टाईगर को भारत की इन दिनों की प्रतिनिधि पुस्तक मानने से इंकार करता हूं ।
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
आपकी पोस्ट इस पर आईं विस्तॄत जानकारी सकरात्मक योगदान करने वाली हैं.
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