Thursday, October 9, 2008

ये किस शहर में हम आ निकले

दिन तो बीत जाता है दफ्तरों में । पर कटती नहीं रातें । जी नहीं ये प्‍यार-व्‍यार का चक्‍कर नहीं है । रूमानियत की कच्‍ची सड़क पर मत जाईये । थोड़ा गंभीर हो जाईये और सुनिए । मुंबई की ये रातें जश्‍न की रातें हैं । समंदर किनारे का ये शहर सितंबर से लेकर दिसंबर तक शोर में डूबा होता है । मुंबई में पहले ही शोर कम थोड़ी है । लोकल ट्रेन का रिदम, बेस्‍ट की बसों की आवारगी और दो-चार पहियों की चिल्‍लपों । कितने ज़रिए हैं शोर के । फिर भी मुंबई को शोर करने के लिए बहानों की ज़रूरत नहीं है । गणपति महोत्‍सव, नवरात्र, ईद, क्रिसमस, नया साल, भारतीय क्रिकेट टीम का जीतना, किसी राजन‍ीति‍क किले पर फतह हर कुछ शोर का सूत्र बन सकता है ।


जिस समय मैं नौ अक्‍तूबर के सुबह नौ बजे के लिए इस पोस्‍ट को लिखकर शेड्यूल कर रहा हूं--आठ अक्‍तूबर की रात के नौ बजे हैं । और मेरे चारों तरफ से शोर का हमला हो रहा है । ज़रा शोर के इस कॉकटेल के अलग-अलग स्‍वादों की बानगी देखिए---

कहीं से नब्‍बे के दशक का शुरूआती गीत बज रहा है---हवा हवा ऐ हवा, यार मिला दे
किसी और दिशा से फाल्‍गुनी पाठक गुजराती में राम जाने क्‍या गा रही हैं । बस डांडिया बीट्स सुनाई दे रही हैं ।
और इस डांडिया में 'सिंग इज़ किंग' का तड़का भी लग रहा है किसी दिशा से ।
मुंबई में बोरीवली पश्चिम स्थित गोराई का ये इलाक़ा जहां मैं रहता हूं---एक कड़ाहे की तरह बन गया है । हर तरफ़ से शोर के नए नए फ्लेवर मिला मिलाकर एक महा-शोर-पकवान तैयार हो रहा है । अरे अब ये कहां से 'मी डोलकर दरयांचा राज़ा' सुनाई दे रहा है हेमंत कुमार और लताजी की आवाज़ों में । कहीं से किशोर कुमार डिस्‍को रीमिक्‍स पर चीख़ रहे हैं--'मैं हूं डॉन' । कुछ फीकी आवाजें 'नीबूड़ा' की हैं । कहीं से ठेलती हुई ध्‍वनि है 'ये देश है वीर जवानों का' । हे भगवान ये कौन सी खिचड़ी है ।

ये वही गीत हैं जिन्‍हें हम अपने घरों में संगीत के नाम पर सुनते हैं । जब इनका डेसीबल बढ़ जाता है तो ये असह्य हो जाते हैं । मुंबई जश्‍न मना रहा है ।
मैं क्‍या करूं । कहां जाऊं । किससे कहूं ।
एक शेर सुनिए---
छोड़कर शहर को अब जंगल में गुजारें बारिश
साल भर में बस एक यही मौसम तो है अपना ।
यहां 'बारिश' की बजाय कोई भी महीना जोड़ दीजिये ।
जंगल में बसने का बहाना तैयार हो जायेगा ।
बहरहाल विजयादशमी की शुभकामनाएं ।
ये विजयादशमी शोर पर सुरीलेपन की जीत का पर्व बन जाये ।

13 टिप्‍पणियां :

महेन्द्र मिश्र said...

बिंदास पोस्ट. दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामना .

Anita kumar said...

दशहरे की आप को भी ढेर सारी शुभकामनाएं, क्या दफ़तर के आसपास भी ऐसा ही शोर सुनाई देता है?

Yunus Khan said...

अनीता जी दफ्तर के आसपास भी तो घर हैं । सोसाइटीज़ हैं । और चूंकि दफ्तर का कंपाउन्‍ड विराट है इसलिए आवाजें वहां तक पहुंचकर 'थक' जाती हैं ।

रवि रतलामी said...

आह, आपने मेरे मन की बात कह दी. भोपाल में भी यही हाल हैं अभी. भोपाल में नवरात्रि और दुर्गा पूजा की धूम रहती है. कल दिन भर लाउडस्पीकरों (पोंगा) - जिसमें ध्वनि की क्वालिटी जैसी चीज नहीं रहती है - पर माता माता बजता रहा. चारों ओर से. फिर भक्तों ने आहुति और यज्ञ भी किए, परंतु पंडित के मंत्रोच्चार होते मुंह के पास माइक्रोफोन रख दिया और दिन भर स्वाहा स्वाहा लाउडस्पीकर पर किसी और दिशा से होता रहा. सुबह तड़के चार बजे माता को आरती गाकर लाउडस्पीकरों पर उठाया जाता रहा और रात बारह बजे उन्हें आरती और लोरी गाकर सुलाया जाता रहा...

सस्ती डीवीडी तकनॉलाजी ने और कबाड़ा कर दिया है. आप बाथरूम में हैं, टायलट में हैं, और पड़ोस में अनाधिकृत जमीन पर बने मंदिर में सुबह से देर रात तक डीवीडी पर तेज आवाज में बज रहे भजन आपके कानों में गूंज रहे हैं...

लगता है, शोर और लाउडस्पीकरों की आवाज से हमारे देवता भी बहरे हो गए हैं वो कुछ सुनते ही नहीं हैं, और दिनों दिन उन्हें और ज्यादा आवाज और तेज लाउडस्पीकरों की आवश्यकता है... हम भक्त गण तो यही सोचने लगे हैं...

पारुल "पुखराज" said...

hamarey ghar ke bagal vaaley puuja paandal me LAKKHA singh subh se gaa rahey hain..ya ki bhagvan ki pariksha le rahey hain ..kahna mushkil hai ...dashera ki shubkamnayen ...aapko aur mamta ji ko...

नीरज गोस्वामी said...

युनुस जी...आप ने मेरे दिल की बात लिख दी...अभी अहमदाबाद अपने बेटे के घर आया हुआ हूँ और रात भर सो नहीं पाया हूँ....इसी शोर की वजह से...हर पाँच मिनट के बाद नगाडे की पिटाई करता हुआ कारवां गुजरता है और नीद कोसों दूर भाग जाती है...ये हाल पिछले पाँच दिन से हो रहा है...सोचता हूँ छोटे बच्चों और बीमार लोगों का क्या हाल हो जाता होगा इन दिनों...क्या खुशियाँ मानाने या इश्वर की आराधना का कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता?कौन जवाब देगा?
आप तो खारघर में रहते थे ना ये गोराई में कब चले गए? ममता जी और आप को विजय दशमी की शुभकामनाएं.
नीरज

ravindra vyas said...

आपने सच्ची बात कही है। चारों तरफ इतना शोर है कि सुरीलापन से जैसे बहिष्कृत कर दिया गया है।
आपको और सभी साथियों की देशहरे की शुभकामनाएं। इस आशा के साथ शोर का रावण भी किसी खत्म हो।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने दुखती रग को छू दिया। शोरहीन वातावरण के लिए तरस गए हैं नगरवासी। आज मेरे यहाँ यही चर्चा हो रही थी। मेरी साली साहिबा आई हुई थीं जयपुर से। कह रही थीं कि कहीं दूर शहर से घर बनाया जाए। पर मुश्किल है पानी बिजली भी चाहिए। मुहल्लों में शोर कम है। पर किसी के यहाँ समारोह हो और डीजे लग जाए। शाम घर छोड़ कर जाना पड़ता है। रात को एक बजे के पहले आने अर्थ है हिंसा सहन करना।
शोर और रात की रोशनी और दोनों ही हिंसक हो गए हैं।

Unknown said...

हमारे इधर तो नया फ़ैशन चल निकला है डीजे पर सुन्दरकाण्ड के पाठ का, रात के नौ बजे से पहले भजन, फ़िर सुन्दरकाण्ड, फ़िर भजन, फ़िर घर में पैदा हुई "गायन प्रतिभायें", सब मिलकर रात के तीन बजा देते हैं… भगवान तो बहरे हैं ही, हमें भी बनाया जा रहा है…

Gyan Dutt Pandey said...

मेरे यहां अच्छा है - गंवई माहौल। लाउड स्पीकर कम ही बजता है।
अत: अपने अन्दर का शोर सुन पाते हैं!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

इसे कहते हैँ साउन्ड पोल्युशन ! :-(
यहाँ ( in USA ) इतनी शाँति से जीने की आदत हो गई है कि, जब भारत और खास कर बम्बई आई थी तब Air condition कमरे के भीतर भी इतना शोर सुनाई दिया कि राम याद आ गये थे !:)
आप दोनोँ को विजया दशमी की शुभकामनाएँ भेज रही हूँ ~~
स स्नेह्,
- लावण्या

अमिताभ मीत said...

कलकत्ते का भी वही हाल है युनुस भाई. बहरहाल विजय दशमी की शुभकामनाएं.

BrijmohanShrivastava said...

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""

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