Thursday, October 30, 2008

क्‍यों फीके पड़ गए दीपावली विशेषांक

दीपावली आते ही मुझे याद आते हैं अख़बारों के दीपावली विशेषांक, जो हमारे बचपन और कैशौर्य का अनिवार्य हिस्‍सा हुआ करते थे । मुंबई आने के बाद इन विशेषांकों से नाता टूट ही गया । फिर ये भी देखा कि अब इन विशेषांकों की चमक एकदम फीकी पड़ गई है ।

 

मध्‍यप्रदेश के अलग अलग शहरों में पलने बढ़ने की वजह से इंदौर के 'नई 1 दुनिया' से गहन और सघन जुड़ाव रहा है । जब अपन अख़बार को अपनी छोटे छोटे हाथों से फैलाकर नहीं पढ़ सकते थे तब उसे ज़मीन पर बिछाकर उस पर बैठकर अक्षर अक्षर जोड़कर पढ़ा करता था । 'नई दुनिया' के दीपावली विशेषांक खूब सजीले आते थे । कहानियां, लेख, कविताएं, फिल्‍मी-मसाला सब कुछ तो होता था इन विशेषांकों में । और कई दिन पहले से अख़बार 'अपनी प्रति आज ही बुक करांए' की टेर लगाते रहते थे । यूं लगता था कि दीपावली विशेषांक 'मिस' हो गया तो बहुत बड़ी सुख से चूक जायेंगे हम । दैनिक भास्‍कर, दैनिक जागरण, नागपुर के लोकमत समाचार वग़ैरह के दीपावली विशेषांक बड़े ही यादगार हुआ करते थे । लोकमत तो अकसर दो बड़े जिल्‍दों वाली पुस्‍तकें निकालता था । जो अभी भी हमारे जबलपुर वाले घर में संग्रहीत हैं । कहानियां, लघु उपन्‍यास, कविताएं, साक्षात्‍कार सब कुछ । इन विशेषांकों में इतनी सामग्री होती थी कि आराम से दो महीने निकल जाते थे पढ़ते हुए ।

 

इसके बाद 'इंडिया टुडे' ने भी अपनी साहित्‍य वार्षिकी छापनी शुरू की थी शायद नब्‍बे के दशक में । पर वो सिलसिला भी शायद 'फायदे' का सौदा नहीं लगा होगा । तभी तो इतनी महत्‍त्‍वपूर्ण कहानियों और कविताओं से सजे इतने महत्‍त्‍वपूर्ण आयोजन को बंद कर दिया गया । अब भी इस तरह के विशेषांक सूधी-पाठकों की शेल्‍फ में सजे होंगे ।

 

मुंबई आने के बाद देखा कि 'जनसत्‍‍ता' सबरंग के नाम से अपनी साहित्‍य विशेषांक दीपावली पर छापा करता था । छोटा लेकिन बेहद महत्‍त्‍वपूर्ण । हमें भी इसमें छपने का मौक़ा मिला । सबरंग के भी पुराने अंक किताबों के बीच कहीं दबे पड़े होंगे । सवाल ये है कि आखिर हिंदी में विशेषांकों की सजीली फौज अचानक फीकी क्‍यों पड़ गयी ।

 

कल मुंबई से प्रकाशित हिंदुस्‍तान टाइम्‍स में नेहा भयाना की शानदार रिपोर्ट

.... सबसे पहले के.आर. मित्रा ने साहित्‍य पत्रिका 'मनोरंजन' का दीपावली विशेषांक निकाला था । इसके बाद 'किरलोस्‍कर', 'स्त्री' और 'विविधा जैसी पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले और फिर ये पंरपरा चल पड़ी । विजय तेंदुलकर और वी.सी.मालेकर जैसे लेखकों को दीपावली विशेषांकों के ज़रिए ही ख्‍याति मिली थी ।

है मराठी पत्रिकाओं के दीपावली-विशेषांकों के बारे में । उन्‍होंने लिखा है कि मंदी की मार से मिठाईयों के बक्‍से छोटे हो गये, कपड़ों और पटाखों पर होने वाला खर्च सिकुड़ गया लेकिन दीपावली पर प्रकाशित होने वाले विशेषांकों पर 'मराठी मानुस' आज भी उतनी ही शिद्दत से खर्च कर रहा है । रिपोर्ट में हर महीने आठ हज़ार रूपये कमाने वाले गुरूनाथ शेट्ये का हवाला दिया गया है । पैंतालीस वर्षीय ये सेल्‍समैन कहता है कि भले ही सजावट के खर्च में कटौती करनी पड़े पर लेकिन 25 दीपावली विशेषांक वो जरूर खरीदेगा । ये वो विशेषांक हैं जिनमें कहानियां, आत्‍मकथाएं, कविताएं और अन्‍य सामग्री होती है । अविश्‍वसनीय लगता है ना...एक व्‍यक्ति पच्‍चीस पत्रिकाएं खरीदने को तैयार है । अगर हम हर पत्रिका की कीमत पच्‍चीस रूपये भी मानें तो कुल छह सौ पच्‍चीस रूपये होते हैं । जो कि एक बड़ी रकम है । फिर सवाल केवल खरीद लेने का नहीं है । बल्कि खरीदकर पढ़ने का भी है । पच्‍चीस विशेषांकों को मतलब है साल भर का कोटा । क्‍या हम हिंदी परिदृश्‍य में इस स्थिति की उम्‍मीद कर सकते हैं ।

 

2 महाराष्‍ट्र में दीपावली विशेषांक छापने का सिलसिला 100 साल पुराना है । इस साल 437 दीपावली विशेषांक बाज़ार में उतरे हैं । मुंबई के अर्थशास्‍त्री गिरीश वासुदेव का कहना है कि इस साल प्रकाशक तकरीबन 22 करोड़ का व्‍यवसाय इन विशेषांकों के सहारे करने वाले हैं । इसके अलावा कोने-कोने में मौजूद सर्क्‍यूलेटिंग-लाइब्रेरियों के ज़रिए ना जाने कितने पाठक लंबे समय तक इन विशेषांकों को पढ़ने वाले हैं । कई ऐसे परिवार हैं जो इतनी सारी पत्रिकाओं को ख़रीद नहीं सकते । ऐसे में दादर की शारदाश्रम को-ऑपरेटिव सोसाइटी ने एक अनूठा उपाय किया है । प्रति सदस्‍य पचास रूपये जमा किये गए हैं । ताकि इन पैसों से साठ सत्‍तर दीपावली विशेषांक ख़रीदे जायें और फिर साझे में पढ़े जायें ।

 

मुझे लगता है कि ऐसी परंपरा महाराष्‍ट्र के अलावा अगर कहीं और है तो वो बंगाल में है । जहां के लोग क्रॉनिक रीडर्स माने जाते हैं । पर मुझे ये बात समझ नहीं आती कि हिंदी परिदृश्‍य में ऐसा क्‍यों नहीं होता । हमारी तो लघु पत्रिकाएं भी डगमगाते हुए चल रही हैं । बड़े समूहों की दिलचस्‍पी हिंदी पत्रिकाओं में नहीं रही, फिर दीपावली विशेष तो दूर ही बात है । हमारे यहां पढ़ने की परंपरा पर कितना ग्रहण लगा है ये सभी जानते हैं । हम तो मांग कर भी पढ़ने में विश्‍वास नहीं रखते । हां मांग कर किताबों को अपने घर पर 'सजा' लेते हैं । और फिर वापस नहीं करते ।

 

दीपावली बीत गयी । आज 'भाईदूज' है । अख़बारों के दफ्तर बंद हैं । दीपावली विशेषांक कहीं हैं नहीं । और मैं ब्‍लॉगों की दुनिया का चक्‍कर काट रहा हूं । बहरहाल देर से ही सही आपको 'शुभ दीपावली' ।

7 टिप्‍पणियां :

संगीता पुरी said...

आपको पढकर अच्‍छा लगा। आपको भी शुभ दीपावली

MANVINDER BHIMBER said...

essa nahi hai...maine pura Remix deepawali par hi banaya hai......
depaaeali ki shubh kaamnaye

ravindra vyas said...

आपने दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मैं भी दीपावली विशेषांकों पर नजर डालता हूं तो घोर निराशा में डूब जाता हूं। वे जितने अपठनीय होते हैं उतने ही अ-दर्शनीय भी। यानी सुरुचिसंपन्नता सिरे से गायब है।
देर से ही सही, आपको दीपावली की शुभकामनाएं।

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सही फरमाया है..अब पत्र पत्रिकाओं में दीपावली का वो उत्साह नहीं दिखता..शायद वेलेन्टाइन विशेषाँक ज्यादा सम्मोहित करता हो उन्हें.

Gyan Dutt Pandey said...

हां दीपावली विशेषांक अब गुजरे जमाने की चीज होती जा रही है।
बहुत दिन बाद आप को पढ़ा यूनुस। बहुत अच्छी पोस्ट।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

यूनुस भाई,
आपको भी दीपावली की शुभकामनाएँ और सच कहा आपने -
"दीपावली विशेषाँक" और उसमेँ रँगीन चित्रोँ को देख और कहानियाँ कविता, सँस्मरण पढकर नई उर्जा मिलती थी ..और कई रँगीन चित्रोँ को सहेजकर रखा जाता था ..अब ये यादेँ ही बाकी हैँ .
स स्नेह्,
- लावण्या

Manish Kumar said...

bengal mein aise visheshank Durga Puja ke samay nikalte hain. Darasal ye phenomena ye bhi ingit karta hai ki aaj ka marathi sahitya aam janmanas ko apne sath jode huye hai jabki hindi mein ye doori lagataar badhi hai.

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