Wednesday, December 31, 2008

इस बार नहीं मनाएंगे हम जश्‍न नये साल के आगमन का । इस बार खोजेंगे हम मुट्ठी भर जीवित संवेदनाएं

इस बार

 

इस बार

नहीं मनाएंगे हम जश्‍न नए साल के आगमन का

इस बार चुनेंगे हम अपने जल चुके घरों की राख से अंगारे

और घोल लेंगे इन्‍हें अपनी शिराओं में....रक्‍त में ।

 

इस बार सहेज कर रखेंगे हम

अपने-अपने हिस्‍से का उजाला

और बांट लेंगे इसे दूसरों के हिस्‍सों के अंधेरे के साथ

 

इस बार चुरा लेंगे हम अंजुरी भर सूरज उगते ही

और टांक देंगे इसे नवविधवाओं के आंसुओं से भीगे आंचल में

 

इस बार रोकेंगे हम गुंबदों और मीनारों से उठने वाली सड़ांध को

इस बार नहीं होगा उत्‍सव की रात्रि का कोलाहल

इस बार

सर्द रात में हम बैठेंगे

झुग्गियों के बाहर बैठे अलाव तापते लोगों के बीच

और समेट लेंगे अलाव की आग अपने भीतर

 

इस बार हम समेटेंगे मूल्‍यों और विश्‍वासों की किरचियां

बो देंगे इन्‍हें पथराई चेतना-भूमि पर

और इंतज़ार करेंगे इंसानियत के स्‍नेहिल-अंकुर फूटने का

 

इस बार नहीं मनाएंगे हम जश्‍न नये साल के आगमन का

इस बार खोजेंगे हम मुट्ठी भर जीवित संवेदनाएं ।

 


ये कविता सन 1992 के अंतिम दिनों में तब लिखी गई थी जब बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था और देश जबर्दस्‍त ध्रुवीकरण का शिकार हो गया था । मध्‍यप्रदेश के छिंदवाड़ा शहर में युवा रचनाकारों, चित्रकारों और नाट्यकर्मियों के समूह 'कथन' ने पोस्‍टर प्रदर्शनी और नुक्‍कड़ नाटकों के ज़रिए शहर में जनचेतना का संचार किया था । उन पोस्‍टरों में एक इस कविता पर भी बनाया गया
था । ऊपर दिया गया चित्र हमारे मित्र मनोज कुलकर्णी के बनाए पोस्‍टर का एक प्रतिरूप है ।


3 टिप्‍पणियां :

दिनेशराय द्विवेदी said...

यूनुस जी,
बहुत दमदार कविता है,
इस कविता की भावना को लाखों सलाम!
आप को सपरिवार नया वर्ष मुबारक हो!

हाँ, टिप्पणी बाक्स अब खुल रहा है।

ganand said...

is kavita ke jariye aapne mere dil ki baat kah di Yunus ji....kaise manaye naya saal jab ek taraf kisi vidhava ke aakhon ke aason nahin sookhen hain uske chhote bachche abhi bhi is asha mein hain ki abba vapas aayenge...to kahin thandh ki maar se behal baadh-pidit janta, jinko tan dhakne ko kuchh nahi hai is shardi mein...

aise mein kaise manayen naya varsh ka jashn kaise manayen....

Gyan Dutt Pandey said...

हर साल ऐसे गुजर रहे हैं कि हर साल के लिये सामयिक है यह कविता।

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