Wednesday, September 24, 2008

राजू भाई, छुट्टन और घर के बेदखल बूढ़े ।

मुंबई का उपनगर बोरीवली ( पश्चिम) । और यहां का एक व्‍यस्‍त-सा चौराहा । डॉन बॉस्‍को स्‍कूल और चर्च यहां के प्रमुख लैन्‍डमार्क हैं, ये वो रास्‍ता है जो पश्चिमी उपनगरों की बहुत मुख्‍य-सड़क न्‍यू लिंक रोड पर है । कल अचानक वहां से गुज़रते हुए एक अनदेखे-से कोने पर एक बुजुर्ग को मूंगफली बेचते हुए देखा । विषयांतर करते हुए आपको बता दूं कि यहां मुंबई में आते-जाते मूंगफली और चने खाकर अपने पोषण को पूरा करने की परंपरा है । देश का सबसे पुराना फास्‍ट-फूड है ये । भुनी हुई मूंगफली, या चने या फिर हरे मटर जैसी चीज़ें फांकते हुए आप चल भी सकते हैं और सार्वजनिक-वाहनों में बैठे भी रह सकते हैं । ख़ैर कल सात बजे सांझ के झुटपुटे के दौरान लालटेन की रोशनी में एक बूढ़े को मूंगफली बेचते हुए देखा तो अपन वहीं रूक गए । छूकर देखा मूंगफली बढिया चकाचक गर्म थी । लेकिन बुढ़ऊ से बतियाने लगे । जब तक बुढ़ऊ दद्दू पुडि़या में मूंगफली पैक कर रहे थे, तब तक उनसे बहुत सारी बातें हुईं । पता चला कि उनका नाम छुट्टन है । मुझे अजीब लगा कि हैं बुढ़ऊ और नाम छुट्टन । दुबली पतली, झुर्रीदार काया, कंटीली मूंछें, धोती कुर्ता और धुंआं धुंआ आंखें लिये, मूंगफली की सिगड़ी के धुंए से तर-ब-तर छुट्टन मज़े से बातें कर रहे थे और ग्राहकों को मूंगफली भी दे रहे थे, पता चला कि पूरी बारिश आज़मगढ़ के आसपास किसी गांव में बिताकर आए हैं । अभी परसों ही लौटे हैं और फिर से ठिया लगाना शुरू किया है । हमने पूछा कि इस उम्र में क्‍या ज़रूरत है ये सब करने की । घर बैठिये, आराम कीजिए । छुट्टन का जो जवाब था उसने ही हमें इस पोस्‍ट को लिखने के लिए मजबूर कर दिया है । उनका कहना था कि दो बेटे हैं । एक मुंबई में दहिसर में । और दूसरा गांव में । अगर दिन भर घर पर बैठें तो बहुओं की ज्‍यादती, बेटों की झिड़क और ताने सुनने पड़ेंगे । इससे अच्‍छा है कि कोई ऐसा ज़रिया हो जाए, जिससे आमदनी भी हो जाये और दिन में घर पर रहना ना पड़े ।

मुझे छुट्टन की इस बात से राजू भाई याद आ गये । तकरीबन साढ़े पांच फुट की काया । केवल एक हाथ । पैर दोनों सही सलामत । सदरी, लाल कमीज़ और सफेद धोती । और पगड़ी । बिल्‍ला अपनी जगह पर कायम । राजू भाई कुली थी और वो मुझे अहमदाबाद रेलवे स्‍टेशन पर मिले थे इसी जून के महीने में संभवत: बाईस तारीख की शाम । हम हिचके कि 'इन्‍हें' सामान कैसे थमाया जाए । राजू-भाई ने कहा कि ये ना समझिये कि एक हाथ नहीं है तो हम आपका बैग नहीं पकड़ पायेंगे । बहरहाल राजू भाई को सामान थमा दिया गया । उन्‍होंने हमें प्‍लेटफॉर्म पर छोड़ा और ट्रेन का इंतज़ार करने लगे । इस दौरान राजू भाई से बातें हुईं ।
पता चला कि वो राजस्‍थान के हैं और एक अरसे से यहां कुलीगिरी कर रहे हैं । काम के सिलसिले में राजस्‍थान से गुजरात आए थे । हमने पूछा इस हाथ को क्‍या हुआ । पता चला कि एक बार ग्राहक झटकने के चक्‍कर में प्‍लेटफार्म पर आती ट्रेन पर चढ़े थे और फिसल पड़े थे । गांव के बारे में उन्‍होंने बताया‍ कि कई बीघा जमीन है । बेटे हैं, पर उन्‍हें राजस्‍थान में इसलिए नहीं रहना क्‍योंकि घर पर पड़े रहेंगे तो बेटे बहुओं की चार बातें सुननी होंगी । एकाध बार कोशिश की है फिर तय किया है कि जब तक जान रहेगी, यही काम करेंगे और खुदमुख्‍तारी से जीवन बिताएंगे ।

सवाल ये है कि छुट्टन या राजू भाई को अपने बुढापे में क्‍यों घर से बाहर रहना पड़ता है । पारिवारिक स्थितियां अच्‍छी होते हुए भी ये बूढ़े इसलिए काम कर रहे हैं क्‍योंकि उन्‍हें घर से बाहर रहने का बहाना चाहिए । बूढ़े बाप मुंबई में हमारे परिवारों का इस क़दर बोझ बन चुके हैं ।

मुंबई के सुदूर उपनगर भाइंदर में मैंने देखा कि रेल की पटरियों के आसपास बनी इमारतों के अवांछित बूढ़े निष्क्रिय पटरियों और बेंचों पर आकर महफिलें जमाते हैं । चूंकि तब नया-नया था इसलिए पता नहीं था कि इतने बड़े बड़े झुंड क्‍या कर रहे हैं भरी दोपहर में । बाद में पता चला कि बहुओं के तानों से बचने के लिए ये पुरूष और महिलाएं समूह में इस तरह से पार्कों, सड़क की पटरियों, रेलवे स्‍टेशनों और कुछ हॉल्‍स में अपना वक्‍त गुज़ारते हैं । 

बस यही वस्‍तु स्थिति आप तक पहुंचानी थी । इसके आगे आज मुझे कुछ नहीं कहना है ।

9 टिप्‍पणियां :

फ़िरदौस ख़ान said...

अच्छी तहरीर है...

संजय बेंगाणी said...

यह सत्य है. दूख होता है, वृद्धो के साथ ऐसा व्यवहार इस कही जाने वाली महान संस्कृति का एक हिस्सा है.

जितेन्द़ भगत said...

सोचा था, बुढापे में घर बैठे जमकर ब्‍लॉगिंग करुँगा, पर शायद भावी बहू के ताने सुनने पड़ सकते हैं, इसलि‍ए भाइयों अपने बुढ़ापे में करने के लि‍ए किसी काम का अभी से इंतजाम करना बहुत जरुरी है, साथ ही, अपने बुर्जुगों का ख्‍याल भी रखना, वे कोई राष्‍ट्रीय धरोहर नहीं हैं।

Gyan Dutt Pandey said...

"इसके आगे आज मुझे कुछ नहीं कहना है ।"
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क्या यूनुस, इतनी जबरदस्त पोस्ट के बाद कुछ बाकी रह जाता है? मैं तो अतीव प्रंशंसाभाव में आ गया हूं।

यह जरूर गांठ बांध लिया है कि निठ्ठल्ले घर बैठना मरण है!

डॉ .अनुराग said...

एक बूढा एक बच्चे सा होता है....बस उसे बोलना आता है....

Udan Tashtari said...

इन अहसासों के बाद, कुछ कहना तो नहीं है..बस चंद पंक्तियाँ:

यह जो सामने
ढलती हुई
एक काया है...
बस, इतना याद रखना..
तुम्हारे आने वाले
कल की ही
एक छाया है!!!

-समीर

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने बहुत ही सटीक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।

लेकिन नगरों में वृद्धों की भी भूमिका है। मैं ऐसे परिवारों को जानता हूँ जहाँ वृद्ध घर संभाल रहे हैं और बेटा बहू काम कर रहे हैं।

बस बात इतनी है कि हम परिवार में समरसता बनाए रखें। अनेक बार यह समरसता बच्चों की ओर से टूटती है और अनेक बार वृद्धों की ओर से भी।

कडुवासच said...

".....ये ना समझिये कि एक हाथ नहीं है तो हम आपका बैग नहीं पकड़ पायेंगे ..." ... "....बहुओं के तानों से बचने के लिए ये पुरूष और महिलाएं समूह में इस तरह से पार्कों, सड़क की पटरियों, रेलवे स्‍टेशनों और कुछ हॉल्‍स में अपना वक्‍त गुज़ारते हैं ।" ..... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति है।

सागर नाहर said...

बहुत विचारणीय पोस्ट.. पर मैं शायद इस पोस्ट पर टिप्पणी करने का अधिकारी भी नहीं क्यों कि पिताजी भी ६६ की उम्र में काम करते हैं।
वजह बहु के ताने सुनने से बचना ना होकर शायद बेटों की अयोग्यता है।
:(

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