Tuesday, February 7, 2012

ग्‍लोबल पोज़ीशनिंग.....

मुझे हमेशा लगता रहा है और अपने अनुभव की बात है कि बहुत उदास हों या बहुत खुश भी हों तो कविताएं और गीत-संगीत के ज़रिये अपने भीतर के दरिया को ख़ाली किया जा सकता है, जो कभी उफनता है तो कभी इतना धूसर और मलिन हो जाता है....जैसे एक नाउम्‍मीद और तटस्‍थ बुजुर्ग। फिल्‍मी गीत, ग़जलें और अलबम, कविताएं.....अतीत के किसी एक बिंदु की तरफ एक सीधी रोशन लकीर खींचते हैं। मानो मन का ग्‍लोबल पोज़ीशनिंग सिस्‍टम हों या कोई लाईट-हाउस हो जो भटके हुए जहाज़ को दिखाते हों कि ये है तुम्‍हारा गंतव्‍य।

इस मायने में कविताएं और गीत अचानक बेशक़ीमती बन जाते हैं। रात के सर्द सन्‍नाटे में अचानक चली आई कोई आवारा याद जब मन की खिड़की के कांच से नाक सटाए मुंह चिढ़ा रही होती है तो उस लम्‍हे को कोई कैसे व्‍यक्त करे।  भला हो कि कभी मन्‍ना डे तो कभी येसुदास तो कभी रहमान भी ऐसे मौक़ों पर साथ आ जाते हैं। कभी साईं ज़हूर, तो कभी रेशमा, कभी बीटल्स, कभी भूपेन हजारिका तो कभी फरीद-अयाज़....जाने कितने कितने स्‍वर। ऐसे ही मौक़ों पर साथ आते हैं जाने कितने कितने कवि। महादेवी कभी कहती हैं--'चिर सजग आंखें उनींदी आज कैसा व्‍यस्‍त बाना' तो कभी 'प्रसाद' याद दिलाते हैं--'सब जीवन बीता जाता है/ धूप छांह के खेल सदृश्‍य/ सब जीवन बीता जाता है'। कभी यूं भी होता है कि केदारनाथ सिंह की पंक्ति बताती है कि तुम यही तो कहना चाहते थे--'तुम दिखीं कि जैसे कोई बच्‍चा सुना रहा हो कहानी/ तुम हंसीं जैसे तट पर बजता हो पानी'।

कह नहीं सकते कि कब कौन सी कविता या कौन से गीत की पंक्तियां आपको सहला कर या कोंच कर चली जायेंगी। ज़रा सोचिए कितना भला अहसास होता है जब अचानक कैफी का लिखा जुमला ज़ेहन में कौंध जाता है --'ओ सजनी सुख रजनी' 'ओ रसिया मन बसिया'। या अभी-अभी ज़ेहन पर उकेरा इरशाद कामिल का जुमला--'हो मुझपे करम सरकार तेरा/ कर दे मुझे मुझसे ही रिहा'। और ये भी कि--'क्‍यूं सच का सबक़ सिखाए/ जब सच सुन भी ना पाए/ सच कोई बोले तो तू / नियम क़ानून बताए/ तेरा डर/ तेरा प्‍यार/ तेरी वाह/ तू ही रख'। 

कभी भी कहीं भी पढ़ी पंक्तियां मन के किसी कोने में 'स्‍टोर' हो जाती हैं। और फिर 'रिट्रीव' कब हों कुछ पता नहीं। आसकरण शर्मा का कोई गीत कभी विविध भारती पर सुना था और अब अकसर झांक जाता है--'दुख चंदन होता है/ जिसके माथे पर लग जाये/ वो पावन होता है'। यूं ही जयपुर के दुष्यंत का एक शेर अचानक ज़ेहन में कौंध जाता है--' बड़े शहरों में अक्‍सर ख्‍वाब छोटे टूट जाते हैं... बड़े ख्‍वाबों की खातिर शहर छोटे छूट जाते हैं'। सुरैया तो अकसर ही गूंजती हैं, सुरैया एक शीरीं शरबत हैं जिसमें आंसुओं का नमक घुला है। 'ये कैसी अजब दास्‍तां हो गयी है/ छिपाते छिपाते बयां हो गयी है'।  

साईं ज़हूर 'अल्‍ला हू' करते हुए अकसर यूं याद आते हैं जैसे मरीन ड्राइव पर डुबकी लगाता सूरज अपनी लाली समंदर पर छिडक जाता है।

ये सब ना होते तो कितने अकेले होते हम। 

3 टिप्‍पणियां :

"डाक-साब" said...

समझ नहीं आता कि एक घोर साहित्यकार रेडियो उद्घोषक बन गया या फिर इसका ठीक उलटा हुआ !

Rebal said...

bahut khoob

Anonymous said...

mannbhawan...

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