Saturday, August 22, 2009

उफ़ परसाई हाय परसाई ।

जबलपुर से हिमांशु दादा ( हिमांशु रॉय ) का मेल आया है । उन्‍होंने सूचित किया है कि बाईस अगस्‍त को यानी आज के दिन जबलपुर इप्‍टा 'विवेचना' द्वारा परसाई जी का जन्‍मदिन मनाया जा रहा है । ये ऐसे मौक़े होते हैं जब जबलपुर विकलता से याद आता है । जब मैं जबलपुर में होना चाहता हूं । दरअसल परसाई और विवेचना जबलपुर के दो ऐसे सूत्र हैं जिनसे जुड़ाव की मीठी यादें अचानक ही ताज़ा हो जाती हैं ।

परसाई को सबसे पहले मध्‍यप्रदेश में स्‍कूल के दिनों में बालभारती या सहायक वाचन में पढ़ा था । वो रचना थी 'सदाचार का ताबीज़' । और दूसरी रचना थी 'टॉर्च बेचने वाला' । तब इतनी समझदारी नहीं थी कि परसाई की रचनाओं के मर्म को समझ पाते । लेकिन इसके बाद तकरीबन नौंवी दसवीं कक्षा वाले सागर शहर के दिनों की बात है । अचानक हमें 'परसाई से प्रेम' हो गया । स्‍कूल के उन दिनों में हमारी एक शानदार मंडली हुआ करती थी । आशीष, पी. राजेश्‍वर राव, संजीव, नवीन और कुछ हद तक श्रवण और भरत वग़ैरह इस मंडली के सदस्‍य थे । उन दिनों हमने 'राष्‍ट्रीय सेवा योजना' यानी NSS ज्‍वाइन कर ली थी । और दिसंबर के महीने में किसी गांव में लगने वाले कैंप में जाते थे । सर्दी के बेहद ठिठुरते इन दिनों में हम सबने सामूहिक रूप से 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' पढ़ी । स्‍कूल की लाइब्रेरी से निकाली गई ये पुस्‍तक कैसे पढ़ी जाती थी आपको बताते हैं । कोई एक व्‍यक्ति ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता था और बाक़ी सारी सुनते थे । सराहना करते थे । तब हमने व्‍यंग्‍य को समझा । तब से हमारी ये राय बनी और आज तक कायम है कि परसाई जैसी राजनीतिक सामाजिक समझ और व्‍यंग्‍य को करूणा की हद तक ले जानी की काबलियत किसी भी व्‍यंग्‍यकार में नहीं है ।  उन दिनों हमने शरद जोशी को भी पढ़ा । पर उन पर ज्‍यादा टिक नहीं सके ।

सागर में वेराइटी बुक स्‍टॉल हुआ करता था । जो शायद अब भी है । और यहां बहुधा राजकमल पेपरबैक्‍स की पुस्‍तकों और अन्‍य प्रकाशनों में हमारा सारा जेबखर्च खप जाता था । किताबों की ख़ब्‍त वाले दिन थे । परसाई की बेहद छोटे आकार की पुस्‍तक 'काग-भगोड़ा' तब इतने बार ख़रीदी की पूछिए मत । हर बार कोई मित्र उठाकर ले गया, लूटकर ले गया । बाद में कोई उधारिया ऐसे ले गया कि आज भी हमारे पास उस पुस्‍तक की प्रति शायद नहीं है । 'काग-भगोड़ा' के बाद तो परसाई को पढ़ने की एकदम से लौ ही लग गयी । फिर जबलपुर वाले दिन आए । तब तक परसाई की रचनाओं के ज़रिए जबलपुर के इत्‍ता जान-समझ गए थे कि वहां पहुंचने के बाद लगा--अच्‍छा तो ये है वो नाला जिसका जिक्र परसाई ने उस रचना में किया था । ओह तो ये वो स्‍कूल है जहां परसाई पढ़ाते थे । अच्‍छा अच्‍छा तो ये है वो अड्डा जहां परसाई बैठा करते थे । शहर की पहचान हम परसाई से करते थे ।

हिम्‍मत नहीं थी कि आकाशवाणी की कैजुएली वाले उन दिनों में अपनी बेहद प्रिय 'स्‍ट्रीट-कैट' साइकिल को परसाई जी के घर की ओर मोड़ दिया जाए । लेकिन ये शौर्य हमने दिखा ही दिया एक दिन । और नेपियर टाउन में परसाई जी के घर पहुंच गए । परसाई जी बिस्‍तर पर थे । हमें पता था कि एक दुर्घटना के बाद उनकी यही हालत है । उनसे बातें हुईं । उन्‍हें पता नहीं किस धुन में हमने अपनी 'कविताएं' तक सुना डालीं । ये बात याद करके आज भी गर्दन के पीछे वाले हिस्‍से में झुरझुरी दौड़ जाती है । उन बचकानी कविताओं पर परसाई ने अपनी राय दी । रास्‍ता दिखाया । फिर तीन चार बार की मुलाकात रही परसाई जी के साथ । एक बार तो गणतंत्र दिवस पर आकाशवाणी जबलपुर के लिए विशेष कार्यक्रम तैयार करते हुए हम उन्‍हें रिकॉर्ड करने भी गए । वो रिकॉर्डिंग पता नहीं जबलपुर केंद्र में अब है या
नहीं । फिर विविध भारती वाले दिन आ गये जीवन में । मुझे याद है कि बंबई से ऑडीशन देकर लौटा ही था कि उसी दिन जबलपुर आकाशवाणी के केंद्र निदेशक क़मर अहमद का फोन आया । परसाई जी नहीं रहे, उनकी 'अंतिम-यात्रा' को कवर करना है । फौरन आओ । जाने क्‍या धुन थी । आनन-फानन पहुंचे । और हमने परसाई को पंच-तत्‍त्व में विलीन होते देखा ।

परसाई से हमारा वास्‍ता देशबंधु के उस कॉलम 'पूछिये परसाई से' भी था । जिसमें वो पाठकों के सवालों के जवाब देते थे । बाद में एक लघुपत्रिका ने ( जिसका नाम याद नहीं आ रहा है ) इस कॉलम को संग्रहीत किया अपने एक विशेष अंक में । वो भी कोई 'उधारिया' ले गया । और हम फड़फड़ाते रहते हैं उस अंक की याद में । किसी भाई-बंधु को उस पत्रिका का अता-पता हो तो कृपया उसकी छायाप्रति ही उपलब्‍ध करा दें । हम आपके आजीवन आभारी रहेंगे ।

जबलपुर में विवेचना अरूण पांडे के निर्देशन में 'परसाई-कोलाज' करती है । बंबई में कुछ बरस पहले इसके छप्‍पर फाड़ शो हुए थे । बंबईया थियेटर ग्रुप भी दंग रह गए थे इन्‍हें देखकर । अगर आपने नहीं देखे तो अब देखिएगा । एक और पुस्‍तक की याद आ रही है अरूण पांडे ने परसाई की रचनाओं से 'कोटेशन्‍स' निकालकर उन्‍हें एक जगह संकलित किया था । वो पुस्‍तक भी किसी उधारिये की भेंट चढ़ गयी । अदभुत था वो संकलन ।

परसाई ने हमारे जीवन पर गहरा असर डाला । परसाई ने हमें 'सेन्‍स ऑफ ह्यूमर' ही नहीं दिया । उन्‍होंने हमें सिखाया कि समाज की विडंबनाओं और वितृष्‍णाओं को देखकर बाल नोंचने या कपड़े फाड़ने की बजाए उन पर चिकोटी काटी जा सकती है । परसाई चुटकुलेबाज़ व्‍यंग्‍य परंपरा से नहीं आते, वो अपने सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों के तामझाम के साथ आते हैं । वो हमें सोचने को विवश करते हैं । परसाई को नमन करते हमारा माथा नहीं घिसता । परसाई का जिक्र करते हमारे शब्‍द कम नहीं पड़ते । परसाई का नाम लेते हमारी जीभ नहीं थकती । एक ही अफ़सोस है.. हम दुनिया में थोड़े दिन और पहले आते तो परसाई का साथ और ज्‍यादा मिलता ।

परसाई की आत्‍मकथात्‍मक रचना 'गर्दिश के दिन' हमें बेहद प्रिय है । परसाई के एक अनन्‍य प्रेमी है 'फुरसतिया' अनूप शुक्‍ल । उन्‍हीं के ब्‍लॉग पर जबरिया इसे ठेला गया था साल 2006 में । तो यहां चटका लगाईये और पढिये 'गर्दिश के दिन' । नहीं पढ़ा तो इस पुस्‍तक को खोजकर पढ़ें । परसाई ने अपने समकालीनों और मित्रों पर क्‍या ख़ूब लिखा है ।

 

12 टिप्‍पणियां :

Anonymous said...

इस उधारिया संस्कृति के कारण तो हम भी कंगाल हुए बैठे हैं :-)

संस्मरण पसंद आए।

Anonymous said...

Parsaai ji ke baare men ek naya nazariya mila.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

Ghost Buster said...

परसाई जी को मैंने पढ़ा है, मगर बहुत ज्यादा नहीं. लग रहा है कि बहुत कुछ पढ़ना बाकी है. आभार इस लेख के लिये.

Manish Kumar said...

परसाई जी को थोड़ा बहुत पढ़ा है पर यूनुस आपने जिस आत्मीयता से ये लेख लिखा है कि आपके द्वारा उल्लेखित किताबों को पढ़ने की इच्छा जीवित हो गई मन में। ऍसे ही बीच बीच में तरंगित करते रहिए।

दिलीप कवठेकर said...

विधि का विधान यही था कि आप ही उनके अंतिम यात्रा को कवर करने पहुंच सके.

सागर का वेरायटी स्टाल अब भी वहां है, ये पता नहीं, मगर बहुत समय पहले के वे दिन फ़िर याद आये जब हम हर गर्मी में ननिहाल जाते थे और वहां से कुछ ना कुछ लेते थे.

Unknown said...

Last week while exploring books at Manish's home in RAK,I finished reading essays by Parsaiji.
Good to read your thoughts Yunus.

रज़िया "राज़" said...

परसाईजी का लेख आपके शब्दों में पढकर बहोत कुछ जानकारी मिली। धन्यवाद।

शरद कोकास said...

युनूस भाई मुझे याद है एक बार मै भी हिमांशु राय जी जब वे केनरा बैंक की करम्चन्द शाखा मे थे उनके साथ उनकी साईकल के डंडे पर बैठकर परसाई जी के घर गया था । परसाई जी के यहाँ पहली बार जाने का ज़िक्र मैने अपने ब्लोग आलोचक मे 22 अगस्त की पोस्ट मे किया है । पूछिये परसाई से शायद अक्षर पर्व मे संकलित है । ललित सुरजन जी से पूछता हूँ । वैसे लगता है आप बहुत लापरवाह बच्चे हैं । खैर यह भी सही है कि वह कोई नासमझ ही होगा जो परसाई जी की किताब लौटायेगा । हम सभी के साथ ऐसा होता है सो मैने तो आजकल किताबे देना बन्द कर दिया है । कोई बुरा माने तो माने । -आपका शरद कोकास,दुर्ग छ.ग.

Toonfactory said...

Shayad Poochhiye Parsaayi Se Akshar Parv mein Sankalit hai! Maine 1999-2000 mein wah ank ek anya laghu patrika Cartoon Watch ke Karyalay mein dekha tha...Agle Mahine Raipur Jaane Ka Plan hai...koshish karunga yadi uski Photocopy mil paaye toh...Haal Hi Mein Parsaayi Samagra Poora Ka Poora Khareeda Hai...Aur Rajkumar Hirani Ji ke Ghar par bhi wah sangrah poora ka poora maujood Dekha hai...Hirani swayam Parsaayi Premi Hain!

बवाल said...

बहुत सुन्दर याद दिलाई भाईजान आपने परसाई जी की।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कमाल है!! पता नहीं कहां-कहां से होते हुए आपके ब्लॉग तक आ पहुंचे. और पहुंचे भी तो क्या खूब! यहां भी इप्टा, विवेचना और परसाई जी.... आभार.

Unknown said...

परसाई जी की हर बात अनूठी थी. उनकी हास्य- व्यंग्यात्मक शैली बहुत कुछ सोचने के लिये विवश करती थी. उनकी हर रचना न केवल प्रभावित करती है, बल्कि प्रेरित भी करती है अँधेरे के ख़िलाफ़ लड़ने के लिये.

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