जैसलमेर-यात्रा पांचवी-कड़ी: भारत पाकिस्तान युद्ध 1971 और लोंगेवाला-पोस्ट की शौर्यपूर्ण दास्तान ।
जैसलमेर यात्रा का विवरण अब एक रोचक मोड़ पर आ गया है । और ये मोड़ है लोंगेवाला या लोंगेवाल । इस जगह का नाम हमने पहले ही बहुत सुन रखा था । दरअसल फिल्म 'बॉर्डर' में भी लोंगेवाल की जंग को दिखाया गया है । लेकिन फिल्मी-कथानक और हक़ीक़त के बीच का अंतर लंबा होता है । सीमा-सुरक्षा-बल के अधिकारियों ने हमें लोंगेवाल के बारे में जो बताया उससे इस जगह के बारे में और जानकारियां जमा करने की इच्छा बढ़ गयी थी । मुंबई लौटकर आने के बाद मैंने इंटरनेट पर लोंगेवाल की बारे में ज्यादा छानबीन की । और कुछ दिलचस्प बातें पता चलीं । आईये आज जानें कहानी लोंगेवाला की ।
विकीपीडिया पर लोंगेवाला के बारे में एक पूरा अध्याय मौजूद है । जिसके मुताबिक़ थार रेगिस्तान में लोंगेवाला की लड़ाई पांच और छह दिसंबर 1971 को लड़ी गयी थी । इस लड़ाई के दौरान 23 वीं पंजाब रेजीमेन्ट के 120 भारतीय सिपाहियों की एक टोली ने पाकिस्तानी सेना के दो से तीन हज़ार फौजियों के समूह को धूल चटा दी थी । भारतीय वायु सेना ने इस लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी ।
शायद आपको जानकारी हो कि 1971 की भारत पाकिस्तान लड़ाई का मुख्य-फोकस था सीमा का पूर्वी हिस्सा । पश्चिमी हिस्से की निगरानी सिर्फ इसलिए की जा रही थी ताकि याहया खान के नेतृत्व में लड़ रही पाकिस्तानी सेना इस इलाक़े पर क़ब्ज़ा करके भारत-सरकार को पूर्वी सीमा पर समझौते के लिए मजबूर ना कर दे ।
.... पाकिस्तान के ब्रिगेडियर तारिक मीर ने अपनी योजना पर विश्वास प्रकट करते हुए कहा था--इंशाअल्लाह हम नाश्ता लोंगेवाला में करेंगे, दोपहर का खाना रामगढ़ में खाएंगे और रात का खाना जैसलमेर में होगा । यानी उनकी नज़र में सारा खेल एक ही दिन में खत्म हो जाना था ।
1971 में नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते में भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के सिलहट जिले के अटग्राम में पाकिस्तानी सीमा पोस्टों और संचार-केंद्रों पर जोरदार हमला कर दिया था । मुक्ति वाहिनी ने भी इसी दौरान जेसूर पर हमला कर दिया था । पाकिस्तानी सरकार इन हमलों से घबरा गयी थी । क्योंकि ये तय हो चुका था कि पूर्वी पाकिस्तान अब सुरक्षित नहीं रहा । पाकिस्तान को बंटवारे से बचाने के लिए याहया ख़ान ने मो. अयूब ख़ान की रणनीति को आज़माया जिसके मुताबिक़ पूर्वी पाकिस्तान को बचाने की कुंजी थी पश्चिमी पाकिस्तान । उनकी कोशिश यही थी कि भारत के पश्चिमी हिस्से में ज्यादा से ज्यादा इलाक़े को हड़प लिया जाये ताकि जब समझौते की नौबत आए तो भारत से पाकिस्तान के 'नाज़ुक-पूर्वी-हिस्से' को छुड़ावाया जा सके ।पाकिस्तान ने पंजाब और राजस्थान के इलाक़ों में अपने जासूस फैला रखे थे । उनकी योजना किशनगढ़ और रामगढ़ की ओर से राजस्थान में घुसपैठ करने की थी । पाकिस्तान के ब्रिगेडियर तारिक मीर ने अपनी योजना पर विश्वास प्रकट करते हुए कहा था--इंशाअल्लाह हम नाश्ता लोंगेवाला में करेंगे, दोपहर का खाना रामगढ़ में खाएंगे और रात का खाना जैसलमेर में होगा । यानी उनकी नज़र में सारा खेल एक ही दिन में खत्म हो जाना था ।
उन दिनों लोंगेवाल पोस्ट पर तेईसवीं पंजाब रेजीमेन्ट तैनात थे जिसके मुखिया थे मेजर के एस चांदपुरी । बाक़ी बटालियन यहां से सत्रह किलोमीटर उत्तर-पूर्व में साधेवाल में तैनात थी । जैसे ही तीन दिसंबर को पाकिस्तानी वायुसेना ने भारत पर हमला किया, मेजर चांदपुरी ने लेफ्टीनेन्ट धरम वीर के नेतृत्व में बीस फौजियों की टोली को बाउंड्री पिलर 638 की हिफ़ाज़त के लिए गश्त लगाने भेज दिया । ये पिलर भारत पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर लगा हुआ था । इसी गश्त ने पाकिस्तानी सेना की मौजूदगी को सबसे पहले पहचाना था ।
....night vision उपकरण नहीं लगे थे इसलिए दिन का उजाला होने तक वायुसेना हमला नहीं कर सकती थी । बहरहाल दोपहर तक भारतीय हवाई हमले ने पाकिस्तानी सेना के चालीस टैंकों और सौ गाडि़यों को तबाह कर दिया और उसकी कमर तोड़ दी ।
पांच दिसंबर की सुबह लेफ्टिनेन्ट धरमवीर को गश्त के दौरान सीमा पर घरघराहट की आवाज़ें सुनाई दीं । जल्दी ही इस बात की पुष्टि हो गयी कि पाकिस्तानी सेना अपने टैंकों के साथ लोंगेवाला पोस्ट की तरफ बढ़ रही है । फौरन मेजर चांदपुरी ने बटालियन के मुख्यालय से संपर्क करके हथियार और फौजियों की टोली को भेजने का निवेदन किया । इस समय तक लोंगेवाला पोस्ट पर ज्यादा हथियार नहीं थे । मुख्यालय से निर्देश मिला कि जब तक मुमकिन हो भारतीय फौजी डटे रहें, पाकिस्तानी सेना को आगे ना बढ़ने दिया जाए । मदद भेजी जा रही है ।
लोंगेवाला पोस्ट पर पहुंचने के बाद पाकिस्तानी टैंकों ने फायरिंग शुरू कर दी और सीमा सुरक्षा बल के पांच ऊंटों को मार गिराया । इस दौरान भारतीय फौजियों ने पाकिस्तान के साठ में से दो टैंकों को उड़ाने में कामयाबी हासिल कर ली । संख्या और हथियारों में पीछे होने के बावजूद भारतीय सिपाहियों ने हिम्मत नहीं हारी । सबेरा हो गया, लेकिन पाकिस्तानी सेना लोंगेवाल पोस्ट पर क़ब्ज़ा नहीं कर सकी । भारतीय वायुसेना के हॉकर हंटर एयरक्राफ्ट में night vision उपकरण नहीं लगे थे इसलिए दिन का उजाला होने तक वायुसेना हमला नहीं कर सकती थी । बहरहाल दोपहर तक भारतीय हवाई हमले ने पाकिस्तानी सेना के चालीस टैंकों और सौ गाडि़यों को तबाह कर दिया और उसकी कमर तोड़ दी । इस बीच थल-सेना की मदद भी आ पहुंची और पाकिस्तान को यहां से पीछे हटना पड़ा ।
विकीपीडिया के बाद अब लोंगेवाल की लड़ाई की कहानी सुनिए एयरमार्शल एम एस बावा की ज़बानी-- ये लेख भी मुझे इंटरनेटी छानबीन के बाद ही हासिल हुआ है । पढिये इसके संपादित अंशों का अनुवाद:
तीन दिसंबर 1971 को जब पाकिस्तानी वायुसेना ने अमृतसर, अवंतीपुर, पठानकोट, उत्तरलई, अंबाला, आगरा, नल और जोधपुर पर हवाई हमले कर दिए थे । पाकिस्तानी सेना का फोकस था लोंगेवाला पोस्ट पर । वो भारतीय सरज़मीं का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़प लेना चाहते थे । पांच दिसंबर की सुबह बेस कमान्डर को एक रेडियो-संदेश आया कि पाकिस्तानी सेना टैंकों के साथ रामगढ़ की तरफ बढ़ रही है । जितनी जल्दी हो सके छानबीन की जाए । भारतीय वायुसेना के पहले दो हंटर विमानों ने जब उड़ान भरी तो लोंगेवाला पर पाकिस्तानी सेना का हमला जारी था, हालांकि वो बहुत ज्यादा कामयाबी नहीं हासिल कर पाई थी । फ्लाईट लेफ्टिनेन्ट डी.के.दास और फ्लैग ऑफीसर आर.सी.गोसाईं अपने विमान को काफी कम ऊंचाई पर लेकर आए और पाकिस्तान के T-59 टैंकों पर निशाना साधा । अब लड़ाई भारतीय वायुसेना और पाकिस्तान तोपख़ाने के बीच थी । हमारे हवाई जांबाज़ पाकिस्तानी टैंकों को ध्वस्त कर रहे थे । पर पाकिस्तानी सेना लोंगेवाल की ओर बढ़ती चली जा रही थी । एक के बाद एक भारतीय वायुसेना के विमान उड़ान भर रहे थे और हमले कर रहे थे । आखिरकार पांच और छह दिसंबर को लगातार हमले करने के बाद भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तानी सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर ही दिया । पूरी कहानी यहां पढ़ें ।
लोंगेवाल की लड़ाई के अनुभव भारतीय वायुसेना के विंग कमान्डर कुक्के सुरेश ने भी लिखी है । जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं । कुल मिलाकर रामगढ़ जैसलमेर की यात्रा के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच हुई 1971 की लड़ाई के इस अध्याय की वो रोमांचक कहानियां सुनने मिलीं, जिनके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता था । आपको बता दें कि इस लड़ाई के ठीक एक साल बाद अपन इस दुनिया में आए थे । बहरहाल इन इलाक़ों में जाना और इनके सामरिक महत्त्व को समझना अपने आप में एक रोमांचक अनुभव रहा । आईये कुछ तस्वीरें दिखा दी जाएं ।
बार्डर पिलर 638 जो अब एक स्मारक है ।
लोंगेवाल-युद्ध का स्मारक, जिस पर इस लड़ाई में हिस्सा लेने वाले सभी सैनिकों के नाम लिखे हैं । और रूडयार्ड किपलिंग की ये उक्ति भी लिखी है:
HOW BETTER CAN A MAN DIE THAN FACING FEARFUL ODDS FOR THE ASHES OF HIS FATHERS AND TEMPLES OF HIS GODS: KIPLING
WE REMEMBER
168 फील्ड रेजीमेन्ट युद्ध सम्मान लोंगेवाला ।
इस श्रृंखला की अन्य कडि़यां--
2.दूसरा भाग--रामगढ़ में संगीत-संध्या
3.तीसरा भाग-सीमा प्रहरियों के विश्वास का केंद्र तन्नोट
4.चौथा भाग-सीमा, सिपाही और सनसनी
अपनी प्रतिक्रियाएं बताते रहिए । अगली कड़ी में की जाएगी थार रेगिस्तान में ऊंटों की सैर ।
6 टिप्पणियां :
बहुत अच्छा विवरण।
बहुत खूब्…साथ साथ हम सब भी घूम रहे हैं …
युनुस जी बहुत ही जीवंत विवरण, ऐसा लग रहा है मानो हम भी वहीं बैठ कर सुन रहे हैं। आप की आवाज का उतार चढ़ाव लिखे शब्दों में भी महसूस हो रहा है।
बहुत खूब युनुसजी,
आपके द्वारा दी गयी जानकारी पढकर रोम रोम अपने फ़ौजी भाईयों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता से भर गया है । रूडयार्ड किपलिंग की पंक्तियाँ भी दिल पर असर करने वाली हैं ।
आपकी अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा ।
लोंगेवाला युद्ध के बारे में हाल ही में आपने खबरें पढी होंगी कि किस तरह थल सेना के अधिकारियों ने झूठे कारनामे बता कर वीरता के सम्मान पा लिए. वायु सेना के लोग अपने संस्मरणों में ऐसा लिख रहे हैं.
हाजिर, जनाब - हम सावधान होकर बगैर विश्राम पढ़ रहे है [ :-)] - मनीष
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