Monday, September 10, 2018

बदल गया है सिनेमा देखने का तरीक़ा



पिछले दिनों मित्रों से बात हो रही थी फिल्‍में देखने से जुड़ी पुरानी यादों पर। सब याद कर रहे थे कि किस तरह से फिल्‍में देखना एक समय उत्‍सव हुआ करता था। ये भी याद किया गया कि किस तरह फिल्‍मों के सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ करते थे। मध्‍यप्रदेश में अस्‍सी के दशक में सार्वजनिक गणेश उत्‍सव के दौरान प्रोजेक्‍टर लगाकर फिल्‍में दिखायी जाती थीं। और लोग उन्‍हें देखने को लालायित भी रहते थे। एक मित्र ने बहुत ही महत्‍वपूर्ण बात कही। उसका कहना था कि बाक़ी तमाम फिल्‍में कब कैसे देखीं
, हमें ये भले याद ना हो, पर जो फिल्‍में सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान देखीं—वो याद हैं। गणेशोत्‍सव में शोलेया डॉनदेखना या फिर स्‍कूल से जब फिल्‍में दिखाने ले जाया गया तो जागृतिया चरणदास चोरया कोई और फिल्‍म देखना।

कमाल की बात ये है कि फिल्‍में पहले की तुलना में ज़्यादा बनने लगी हैं। फिल्‍में देखने के मौक़े भी बढ़ गये हैं। सिंगल स्‍क्रीन थियेटर की जगह अब बहुधा मल्‍टीप्‍लेक्‍स ने ले ली है। पहले की तरह अब फिल्‍में के टिकिट ब्‍लैक नहीं होते। लेकिन इसके बावजूद फिल्‍में देखने का वो उत्‍साह
, फिल्‍मों का वो कौतुहल, वो ललक कम से कमतर होती चली जा रही है। आज फिल्‍में देखना उस तरह उत्‍सव नहीं रह गया है। वरना एक समय था जब दूरदर्शन के श्‍वेत-श्‍याम दौर में भी रविवार की शाम की फिल्‍म के लिए पूरा परिवार एकदम मुस्‍तैदी से तैयार रहता था। बढिया खाना पहले तैयार कर लिया जाता था। बच्‍चे अपने हिस्‍से की पढ़ाई भी पहले ही खत्‍म कर लेते थे। और फिर सब काले-सफेद रंगों में फिल्‍म बड़े चाव से देखते थे।

सवाल ये है कि अब ऐसा क्‍या बदल गया है। जहां तक मुझे लगता है, सूचना की तेज़ आंधी ने फिल्‍मों के बारे में ज़रूरत से ज्‍यादा जानकारियां हम तक लाना शुरू कर दी है। एक माध्‍यम के रूप में सिनेमा से जुड़ा जो कौतुहल का तत्‍व था—उसे छोटे परदे पर चौबीस घंटे चलने वाले मूवी चैनल्स ने ख़त्‍म कर दिया है। इसके अलावा अब ये भी है कि पायरेटेड वीडियो का एक लंबा दौर आया है। जब उधर फिल्‍म रिलीज़ हुई—इधर लोगों के पास उसका वीडियो आया। मल्‍टीप्‍लेक्‍स में फिल्‍में देखना महंगा होता चला गया, बहुधा मध्‍यवर्ग के ‍लिए उसका खर्च उठाना भी मुश्किल हुआ है। सिनेमा देखने के वैकल्‍पिक साधन भी आते चले गये हैं। अकसर चैनल्‍स पर कुछ महीने बाद बीतों दिनों की हिट फिल्‍म दिखा दी जाती है।

इसके अलावा एक और बड़ा बदलाव टीवी और सिनेमा देखने के हमारे तरीक़े में आया है। वो है स्‍मार्ट टीवी का आना। या एप्‍लीकेशन के ज़रिये सिनेमा देखने का इंतज़ाम। अब अमेजन प्राइम
, नेट फ्लिक्‍स, ऑल्‍ट बालाजी, इरोज़ नाउ, जियो सिनेमा, हॉट-स्‍टार, स्‍पूल जैसे एक दर्जन एप्‍लीकेशन मौजूद हैं। इनमें से कुछ मुफ्त हैं जबकि कुछ के लिए आपको सालाना या प्रति फिल्‍म पैसे चुकाने पड़ सकते हैं। जो ज्‍यादा टेक्‍नो पीढ़ी है वो कोडी जैसे ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर की मदद लेती है और स्‍ट्रीमिंग के ज़रिए चलते फिरते फिल्‍में देखती है। मुंबई या अन्‍य शहरों में चारों तरफ देखिए, नई पीढ़ी कानों में हेडफोन लगाए मोबाइल पर फिल्‍में देखती पायी जायेगी। बदल गया है हमारे समय का सिनेमा देखने का तरीक़ा।   


लोकमत समाचार मेंं बीते सोमवार 3 सितंबर 2018 को कॉलम 'ज़रा हटके' में प्रकाशित। 

2 टिप्‍पणियां :

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अमर शहीद जतीन्द्रनाथ दास की पुण्यतिथि पर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

सिनेमा भी बदल गया है ! सफर भी तो कितना तय कर चुका है, बदलाव अवश्यम्भावी था ! उसके पुराने स्वरुप के बयान पर आज के बच्चे विश्वास ही नहीं कर पाते !

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