पोस्टर हिंदी सिनेमा के
जाने क्यों सिनेमा देखने की वो सनसनी आज नहीं
रही—जो पहले हुआ करती थी। वो रोमांच—जो सिनेमा देखने का प्लान बनाते ही होने लगता था। खूब तैयार होकर हम सब
सिनेमा देखने जाते थे। उस ज़माने में तो सिनेमा के पोस्टर बड़े आकर्षक होते थे।
आपको बता दें कि भारत में मूक फिल्मों के ज़माने से ही प्रचार का चलन शुरू हो गया
था। भारत का सबसे पुराना हाथ से पेन्ट किया गया और समय के थपेड़ों में बचा रह गया
पोस्टर है मराठी फिल्म –‘कल्याण ख़ज़ीना’ का। ये वो ज़माना था जब खुद पेंटर रहे बाबूराव पेन्टर जैसे फिल्मकार
अपनी फिल्मों के प्रचार और पोस्टर को बड़ी गंभीरता से लिया करते थे।
मुझे याद है मध्यप्रदेश के अपने बचपन के दिनों में पोस्टर पेन्टरों द्वारा तैयार किए जाते थे। और अमूमन अमरावती या इसी तरह के किसी शहर का नाम भी नीचे पेन्टर के नाम के संग लिखा होता था। इन पोस्टरों को देखने का अपना मज़ा था। अमिताभ बच्चन की तमाम फिल्मों के इस तरह हाथ से कैनवस पर रंगे गये पोस्टरों की बात ही कुछ और होती थी। भोपाल में था तब। शायद लिली टॉकीज में ‘प्यार झुकता नहीं’ लगी थी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उसका कैनवस पर तैयार पेंटेड पोस्टर जाने कब का बदरंग होकर फट गया था और उसकी जगह छोटे पोस्टर ने ली थी। तब का समय वो था कि सारे शहर ने मान लिया था कि इस टॉकी़ज़ में ये फिल्म अभी और भी लगी रहेगी। छोटे पोस्टर के रंगों या आकृतियों से दूर से पता चल जाता था, अच्छा वही फिल्म आज तक चल रही है।
हमने सुना है कि महान चित्रकार एम एफ हुसैन ने भी फिल्मों के पोस्टर तैयार करने का काम अपने गर्दिश के दिनों में किया था। बदलते वक्त के साथ पोस्टरों का वो जलवा ख़त्म हो गया। डिजिटल प्रिंटिंग के विस्तार और फ्लैक्स बैनर के आ जाने के बाद अब सब कुछ यांत्रिक हो गया है। बीच के दौर में बड़े पोस्टर को कई टुकड़ों में प्रिंट किया जाता था और उन्हें एकदम सही सीध बैठाकर चिपका दिया जाता था। लेकिन अब तो वो दौर है कि किसी भी साइज़ के पोस्टर या ‘कट आउट’ में असली तस्वीर ज्यों की त्यों छप जाती है। और पोस्टर रातों रात बदल दिये जाते हैं। वो भी बिना किसी दिक्कत के। ज़रा याद कीजिए जब आपके नज़दीक की किसी टॉकीज़ में उस ज़माने में पोस्टर चढ़ाया जाता था। शुक्रवार की फिल्म रिलीज़ के लिए अकसर गुरूवार को ही पोस्टर चढ़ा दिया जाता था। और इसमें कई घंटे लग जाते थे।
अब ज़रा एक और बहुत ही सुहानी याद। टॉकीज़ के अंदर एक शो गैलेरी होती थी। जहां फिल्मों के अलग अलग दृश्य प्रदर्शित किये जाते थे। और फिल्म देखने से पहले सभी बड़े कौतुहल से उन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाते थे कि ये सीन कौन-सा हो सकता है। यहां तक कि इंटरवल में भी मिलाया जाता था कि अच्छा इस तस्वीर वाला सीन तो हो गया, पर ये वाला अभी बचा है। तब तो ट्रेलर देखना भी कमाल का सनसनी वाला अनुभव हुआ करता था। अब तो फिल्म देखने से पहले उसके बारे में हमें बहुत कुछ पता होता है और अब तक पोस्टरों के प्रति वो प्रेम भी कहां रह गया है।
लोकमत समाचार के स्तंभ 'जरा हट के' में 13 अगस्त को प्रकाशित।
मुझे याद है मध्यप्रदेश के अपने बचपन के दिनों में पोस्टर पेन्टरों द्वारा तैयार किए जाते थे। और अमूमन अमरावती या इसी तरह के किसी शहर का नाम भी नीचे पेन्टर के नाम के संग लिखा होता था। इन पोस्टरों को देखने का अपना मज़ा था। अमिताभ बच्चन की तमाम फिल्मों के इस तरह हाथ से कैनवस पर रंगे गये पोस्टरों की बात ही कुछ और होती थी। भोपाल में था तब। शायद लिली टॉकीज में ‘प्यार झुकता नहीं’ लगी थी। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उसका कैनवस पर तैयार पेंटेड पोस्टर जाने कब का बदरंग होकर फट गया था और उसकी जगह छोटे पोस्टर ने ली थी। तब का समय वो था कि सारे शहर ने मान लिया था कि इस टॉकी़ज़ में ये फिल्म अभी और भी लगी रहेगी। छोटे पोस्टर के रंगों या आकृतियों से दूर से पता चल जाता था, अच्छा वही फिल्म आज तक चल रही है।
हमने सुना है कि महान चित्रकार एम एफ हुसैन ने भी फिल्मों के पोस्टर तैयार करने का काम अपने गर्दिश के दिनों में किया था। बदलते वक्त के साथ पोस्टरों का वो जलवा ख़त्म हो गया। डिजिटल प्रिंटिंग के विस्तार और फ्लैक्स बैनर के आ जाने के बाद अब सब कुछ यांत्रिक हो गया है। बीच के दौर में बड़े पोस्टर को कई टुकड़ों में प्रिंट किया जाता था और उन्हें एकदम सही सीध बैठाकर चिपका दिया जाता था। लेकिन अब तो वो दौर है कि किसी भी साइज़ के पोस्टर या ‘कट आउट’ में असली तस्वीर ज्यों की त्यों छप जाती है। और पोस्टर रातों रात बदल दिये जाते हैं। वो भी बिना किसी दिक्कत के। ज़रा याद कीजिए जब आपके नज़दीक की किसी टॉकीज़ में उस ज़माने में पोस्टर चढ़ाया जाता था। शुक्रवार की फिल्म रिलीज़ के लिए अकसर गुरूवार को ही पोस्टर चढ़ा दिया जाता था। और इसमें कई घंटे लग जाते थे।
अब ज़रा एक और बहुत ही सुहानी याद। टॉकीज़ के अंदर एक शो गैलेरी होती थी। जहां फिल्मों के अलग अलग दृश्य प्रदर्शित किये जाते थे। और फिल्म देखने से पहले सभी बड़े कौतुहल से उन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाते थे कि ये सीन कौन-सा हो सकता है। यहां तक कि इंटरवल में भी मिलाया जाता था कि अच्छा इस तस्वीर वाला सीन तो हो गया, पर ये वाला अभी बचा है। तब तो ट्रेलर देखना भी कमाल का सनसनी वाला अनुभव हुआ करता था। अब तो फिल्म देखने से पहले उसके बारे में हमें बहुत कुछ पता होता है और अब तक पोस्टरों के प्रति वो प्रेम भी कहां रह गया है।
लोकमत समाचार के स्तंभ 'जरा हट के' में 13 अगस्त को प्रकाशित।
तरंगित टिप्पणियां
Post a Comment