Monday, August 27, 2018

हम सब मुकेश- 27 अगस्‍त पुण्‍यतिथि पर विशेष।






 सन 1976 भारत के हिसाब से बड़ा दिलचस्‍प साल था। भारत में आपातकाल चल रहा था। इस बरस की हिट फिल्‍मों में शामिल थीं—दस नंबरी
, लैला मंजनू, नागिन, हेरा फेरी, चरस, फकीरा, कालीचरण, कभी-कभी वग़ैरह। इसी बरस अमिताभ बच्‍चन की एक ही महत्‍वपूर्ण फिल्‍म आयी कभी कभी। बीते बरस शोलेआयी थी। और अगले बरस आने वाली थी अमर अकबर एंथनी

छह बरस पहले राज कपूर
मेरा नाम जोकरबनाकर हाथ जला चुके थे। 2 इंटरवल और 255 मिनिट वाली इस फिल्‍म को देखना जाने कितने लोगों को याद है। फिर बॉबीआयी 1973 में, जब पहली बार राजकपूर की फिल्‍म में ना शंकर जयकिशन थे, ना हसरत-शैलेंद्र, ना ही मुकेश। झमाझम लक्ष्‍मीकांत प्‍यारेलाल ने बॉबीमें कमाल कर दिया था। इस दौर में मुकेश के गिने चुने गाने आ रहे थे—बस ‘‘कभी कभी’ 1976 में आयी—जिसमें मुकेश के अमर गीत थे। यही हाल रफी का था। पर यादों की बारात’, ‘हीर रांझा,’ अभिमान’, ‘हवस’, ‘लैला मंजनूजैसी फिल्‍मों के ज़रिए उनके यादगार गाने सामने आये थे। पर किशोर इस दौर में छाए हुए थे। आंधी’ 1975 में आयी थी। 1976 में महबूबामें उन्‍होंने गाया—मेरे नैना सावन भादो। आगे-पीछे तमाम ऐसे गाने आये जो उन्‍हें कामयाब गायक बना रहे थे।

22 जुलाई 1976 को मुकेश ने सरला त्रिवेदी से अपनी शादी की तीसवीं सालगिरह मनाई। और चार दिन बाद 26 जुलाई 1976 को वो अमेरिका में अपने कंसर्ट की श्रृंखला के लिए निकल पड़े। उन्‍होंने राजकपूर के लिए अपना आखिरी गीत रिकॉर्ड किया—
चंचल शीतल कोमल निर्मल। फिल्‍म थी सत्‍यम शिवम सुंदरम। किसी को पता नहीं था कि बस एक महीने बाद मुकेश ताबूत में लौटेंगे। 27 अगस्‍त 1976 को डेट्रॉइट मिशिगन में एक कंसर्ट के दौरान मंच पर ही दिल का दौरा पड़ा और सुरों का पंछी उड़ गया। एयरपोर्ट पर मुकेश को रिसीवकरने खड़े थे राजकपूर और मनोज कुमार जैसे सितारे। राजकपूर ने कहा—मेरी तो आवाज़ ही चली गयी

42 साल में जाने कितनी पीढियां बदल जाती हैं। पर क्‍या कोई दिन ऐसा बीता है जब हमने मुकेश को गुनगुनाया नहीं हो। क्‍या किसी उदासी के पल में आप
भूली हुई यादोंनहीं गुनगुनाते। कुदरत की हज़ार हजार बांहें जब आपको थामने को तैयार होंआप अनायास ही गुनगुना उठते हैं—‘ये कौन चित्रकार है। मुकेश हमारे साथ इन पंक्तियों में भी खड़े होते हैं—‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आयें जन्‍मों के नाते। मुकेश हमारी अंत्‍याक्षरियों के बहुत ज़रूरी गीत डम डम डिगा डिगाके दौरान भी आसमान से मुस्‍कुराते होंगे। जब कहीं किसी का दिल टूटता हैवो मुकेश बन जाता है।

मुकेश का होना इसलिए भी मायने रखता है कि हम बिना संकोच अपने सुरे-बेसुरे अंदाज़ में उन्‍हें गुनगुनाते हैं। बिना किसी लाज शर्म के। वो आज जनता के गायक हैं। वो हमारे अपने हैं। वो बहुत सरल हैं, सहज हैं। मुकेश जैसे गायक की लोकप्रियता का च्‍यवनप्राश तो यही रहा है। हम सब पर मुकेश की आवाज़ बहुत फबती है।


लोकमत समाचार के स्‍तंंभ 'ज़रा हटकेेे' में 27 अगस्‍त 2018 को प्रकाशित। 

1 Comentário:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नेत्रदान कर दुनिया करें रोशन - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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