वो भूली दास्तां
मैं
हमेशा कहता हूं, गाने अतीत का ‘रिफरेन्स पॉइन्ट’
होते हैं। जिंदगी की इस भागदौड़ में वो कहीं से भी आकर हमारे गले
में झूल जाते हैं और बीते समय की ना जाने कौन-सी भूली याद को ताज़ा कर जाते हैं।
एकदम अनायास। एकदम अचानक। गाने सुनने के लिए रेडियो से बेहतर ज़रिया कोई हो नहीं
सकता। आपको पता नहीं होता कि अब कौन-सा गाना आने वाला है। आप अकसर अपने काम में
लगे या सोच में डूबे होते हैं और रेडियो की तरंगें आपकी उँगली थामकर आपके साथ चलती
हैं।
एक खीझे हुए या सुकून भरे दिन आप रेडियो का साथ मांगते हैं, इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ ऐसा सुनने मिल जाए- जो लहू में सब्र घोल दे। जो इस बेरहम संसार में उम्मीद बंधाए और कहीं से 'लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो ना हो...’ सुनाई दे जाता है। कहीं तो कोई दिन होता है, जब बदहवासी के आलम में कहीं दूर से भूपिंदर जी की आवाज़ आपका सिर सहला जाती है--'जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेटकर/......दिल ढूंढता है'....जाने वो कौन-सा लम्हा होता है, जब आपके होठों पर अनायास ही सज उठता है--'माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की'।
एक खीझे हुए या सुकून भरे दिन आप रेडियो का साथ मांगते हैं, इस उम्मीद में कि कहीं से कुछ ऐसा सुनने मिल जाए- जो लहू में सब्र घोल दे। जो इस बेरहम संसार में उम्मीद बंधाए और कहीं से 'लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो ना हो...’ सुनाई दे जाता है। कहीं तो कोई दिन होता है, जब बदहवासी के आलम में कहीं दूर से भूपिंदर जी की आवाज़ आपका सिर सहला जाती है--'जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेटकर/......दिल ढूंढता है'....जाने वो कौन-सा लम्हा होता है, जब आपके होठों पर अनायास ही सज उठता है--'माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की'।
और
क्या आपके बस में होता है जब आंखों की गीली कोरों पर अटकी आंसू की हर बूंद
गुनगुनाती है--'नैनों में बदरा छाए/ बिजली-सी चमके हाय'...क्या आपको पता है कि बहुत उदास और ख़ाली दिनों
में क्यों रेडियो का कोई चैनल आपका हमसफर बन जाता है--'वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गयी/ नज़र के
सामने घटा-सी छा गयी'......
कभी तो आपका दर्द से कांपता दिल
पुकारता है--'जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों
रोए'.... कभी तो यूं भी लगता है कि कोई कंधा
हो-- जिस पर सिर रखकर देर तक सुनें--'आपके
पहलू में आकर रो दिए'। शाम के धुंधलके में लरजिश भरी एक
आवाज़ सुरमई शाम के मानूस सायों को और गहरा कर जाती है—‘फिर
वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है/ दिल को बहलाने तेरी याद चली आई है’।
इंतज़ार का कोई पल तो आपने जिया होगा--जब संतूर की तरह आहटों के तार बजे होंगे--'ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं'। उस ज़माने को याद करते हुए जब आंख भर जाती है--और आपको लगता है--'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा'...ऐसे रूमानी पलों में पल भर ठहरकर नमन कर लीजिएगा मदन मोहन को.....
इंतज़ार का कोई पल तो आपने जिया होगा--जब संतूर की तरह आहटों के तार बजे होंगे--'ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है, कहीं ये वो तो नहीं'। उस ज़माने को याद करते हुए जब आंख भर जाती है--और आपको लगता है--'होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा'...ऐसे रूमानी पलों में पल भर ठहरकर नमन कर लीजिएगा मदन मोहन को.....
आपको
नहीं पता पर अनायास ही आपने अपने जीवन के अनगिनत पलों को उनके साथ जिया है। साझा
किया है। कहां अहसास होता है गुनगुनाते हुए, सुनते
हुए कि ये गाने किस संगीतकार के हैं। बस हाथ जोड़ लीजिएगा। कहिएगा सलाम मदनमोहन।
कॉलम- ज़रा हट के
लोकमत समाचार
16 जुलाई 2018
कॉलम- ज़रा हट के
लोकमत समाचार
16 जुलाई 2018
3 टिप्पणियां :
बहुत खूब .... !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन इमोजी का संसार और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
बहुत ही ख़ूबसूरत पोस्ट ... दिल को छूते हुए गीत संगीत के शहंशाह मदन मोहन जी को नमन है ...
यादों के गलियारे खुल गए ...
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