Friday, December 2, 2011

गोवा फिल्‍म समारोह: चौथा दिन

चौथे दिन की शुरूआत में बड़े उत्‍साह के साथ हम विम वेन्‍डर्स की फिल्‍म 'पिना' देखने गए। विम वेन्‍डर्स से कुछ साल पहले मुंबई के मैक्‍समूलर भवन ने परिचय करवाया था। उस समय उनका retrospective किया गया था जिसका नाम था “until the end of the world”. तब विम वेन्‍डर्स की कई प्रायोगिक फिल्‍में देखने मिली थीं। और तब से उन पर हमेशा हमारी नज़र रही है। 

अब PINA की बात। ये एक थ्री डायमेन्‍शल मूवी है। आपको बता दें कि इस फिल्‍म समारोह में थ्री डायमेन्‍शन फिल्‍मों के लिए एक अलग से खंड है जिसका नाम है--'थर्ड डायमेन्‍शन'। जाहिर है कि इस सेक्‍शन को लेकर काफी उत्‍साह देखा गया। विम वेन्‍डर्स से जैसी उम्‍मीद थी, ये फिल्‍म वैसी ही है। अगर आप बेहद मसाला या कहें नाटकीय पारंपरिक मनोरंजन या एक सही ढांचे वाली कहानी की उम्‍मीद करके सिनेमा देखने जायें तो आपको विम वेन्‍डर्स की फिल्‍में नहीं देखनी चाहिए। 'पिना' एक फीचर लेन्‍थ की डान्‍स फिल्‍म है। क्‍लासिक वेस्‍टर्न डान्‍स की टोली की निर्देशिका पीना की 2009 में मृत्‍यु हो गयी। इस फिल्‍म के जरिये नृत्‍य को लेकर पीना के प्रयोग और उनके कलाकारों की यादों के ज़रिये उसकी शख्सियत और कला को उभारा गया है। तीन आयाम वाली इस फिल्‍म को देखना अपने आप में एक बेहतरीन अनुभव कहा जा सकता है। बशर्ते आप टिपिकल फीचर की उम्‍मीद ना करें। ट्रेलर यहां देखें। फिल्‍म की वेबसाइट ये रही।  

कला अकादमी में 'पीना' देखने के बाद हम फिर से 'गोआ एंटरटेन्‍मेन्‍ट सोसाइटी' के परिसर में आ गये, जिसे एक तरह से फिल्‍म समारोह का मुख्‍य आयोजन स्‍थल कहा जा सकता है। यहां अल्‍जीरिया की फिल्‍म देखने मिली “how big us your love”. इस फिल्‍म की निर्देशिका हैं फातिमा जोहरा ज़मूम। जो हॉल में मौजूद थीं और उन्‍होंने दर्शकों के सवालों के जवाब भी दिये। ये फिल्‍म असल में एक ऐसे बच्‍चे की कहानी है जिसके माता-पिता की बनती नहीं। तलाक की नौबत है। मां अपने मायके जा चुकी है। पिता डॉक्‍टर है और व्‍यस्‍त रहता है इसलिए बच्‍चे को वो उसके दादा-दादी के पास छोड़ देता है। ये एक बुजुर्ग जोड़ा है जिसके दो बेटे हैं, पर वो साल भर में एकाध बार ही मां-बाप के पास आते हैं। दोनों खासा अकेलापन महसूस करते हैं। पोते के आने से दोनों के जीवन में बहार आ गयी है। और ये बात कुछ दृश्‍यों में बड़ी अच्‍छी तरह से उभारी गयी है।

दादाजी पोते को चिडियाघर दिखाने ले जाते हैं। बताते हैं कि शेर जंगल का राजा है जिसके लिए शेरनी शिकार करती है। पर बदले में वो अपने परिवार की हिफाजत करता है। पोता कहता है कि मेरे पापा भी शेर हैं ना। दादाजी--'हां बेटा वो भी शेर हैं, पर शेर और इंसान में फर्क यही होता है कि शेर वफादार होता है'। पोता--'वफादार' का क्‍या मतलब होता है दादाजी। और दादाजी निरूत्‍तर होकर पोते को अगले जानवर जेब्रा के बारे में बताने लगते हैं। पोता अपनी दादी के पास पहुंचता है और वहां उनसे पूछता है कि वफादार का क्‍या मतलब होता है। दादी का जवाब है वफादार का मतलब होता है हमेशा रिश्‍ते को निभाने वाला। जैसे कि मैं। और उनकी आंखें चमक उठती हैं। फिर दादा पूछती हैं बताओ बेटा तुम मुझसे कितना प्‍यार करते हो।  (how big is your love)......दादी हाथ फैलाकर बोलती हैं, इतना...पोता कहता है, नहीं और.....दादी और बड़ा हाथ फैलाती हैं...पोता संतुष्‍ट है, इतना प्‍यार करता हूं मैं आपसे।

फिल्‍म में अल्‍जीरिया के बदलते समाज और बदलते पारिवारिक मूल्‍यों को दर्शाया गया है। हमारी फिल्‍मों की तरह ये सुखांत नहीं है। बल्कि मां-बाप की कोशिशों के बावजूद कोई हल नहीं निकलता है। तलाक होना अब पक्‍का है। सोचिए--'हाउ बिग इज योर लव'।


चूंकि अब समापन समारोह नज़दीक आ रहा है--और लगातार सिनेमा देखने से एक ख़ास तरह की घबराहट, ऊब और थकान कभी-कभी मन पर तारी हो जाती है इसलिए हमने दोपहर के बाद का समय रखा अपने लिए। शान से सर्किट हाउस में लंच लिया और फिर आकाशवाणी पणजी के लोगों से गप्‍पें और अपने कमरे में आराम।


शाम को राजेश पिन्‍जानी की चर्चित फिल्‍म 'बाबू बैन्‍ड बाजा' देखी। इससे पहले मणिपुर की एक शॉर्ट फिल्‍म दिखाई noong amaadi yeroom. चौदह मिनिट की इस फिल्‍म में एक पिता का बेटे पर खौफ दिखाया गया है। बेटा किशोर है और शरारत करता है। उससे पिता का हुक्‍के का ढक्‍कन टूट जाता है और वो अपने चाचा के घर से चुराने के चक्‍कर में पकडा जाता है फिर चाचा उसे बचाते हैं।

राजेश पिन्‍जानी की फिल्‍म 'बाबू बैंड बाजा' पहले ही खासी मशहूर हो चुकी है। और ये उसका रिपीट शो था जो पूरी तरह हाउस फुल रहा। आपको बता दें कि 'बाबू बैन्‍ड बाजा' का मतलब है बाबू बैन्‍ड पार्टी। ये कहानी है उन बाजे वालों की जो जन्‍म और मृत्‍यु हर मौके पर बाजा बजाते हैं। और उनकी अपनी जिंदगी में ना कोई सुर है ना ताल है। 'बाबू बैंड बाजा' में राजेश पिन्‍जानी ने काफी प्रभावी तरीक़े से महाराष्‍ट्र के इस समुदाय के ग्रामीण जीवन की कथा कही है। मां जो पुराने कपड़ों के बदले में बर्तन बेचने का काम करती है, चाहती है कि बाबू पढ़े। पिता चाहता है कि बाबू उसके साथ बाजा बजाए। एक दिन स्‍कूल से लौटते वक्‍त खेलने के चक्‍कर में बाबू का बस्‍ता कोई चुरा ले जाता है। जिसमें किताबें और बाजा दोनों हैं। यूनिफॉर्म और पुस्‍तकें ना होने की वजह से मास्‍टर बाबू को क्‍लास में बिठाता नहीं है। पिता संघर्षरत है, क्‍योंकि बाजा बजाने का काम बहुत कम हो रहा है, शहर से सजीली बैंड पार्टी बुलवाई जाने लगी है। मां बर्तन का काम छोड़कर एक रूई फैक्‍ट्री में काम पकड़ती है और किसी तरह बाबू का बस्‍ता खरीदती है। ठीक उसी समय बाबू को अपना पुराना बस्‍ता गांव की एक पागल औरत के पास मिल जाता है। रूई फैक्‍ट्री में आग लग जाती है। बस्‍ता अंदर है, जिसे लाने के चक्‍कर में बाबू की मां जलकर मर जाती है।

जाते-जाते मां बाबू और उसके पिता को एक सपना दे गई है कि बाबू पढ़ेगा। बाजा नहीं बजाएगा। फिल्‍म बेहद मार्मिक है। कई दृश्‍य आपको भीतर तक भिगो देते हैं। दिलचस्‍प बात है कि राजेश पिन्‍जानी की ये पहली फीचर फिल्‍म है। जाहिर है कि बतौर युवा निर्देशक राजेश ने काफी उम्‍मीदें जगाई हैं।

आज की आखिरी फिल्‍म थी 'द लेडी' जो अलग से पोस्‍ट की मांग करती है।

1 Comentário:

"डाक साब" said...

पिछले चार दिनों से हम तो रहते हैं ऑपरेशन थियटर में लेकिन हमारा मन रहता है देसी-परदेसी फ़िल्मों के बीच गोआ में ।
किसी दिन एपेन्डिक्स की जगह गॉल-ब्लैडर या गुर्दा वग़ैरह ना निकाल दें किसी का - आपके चक्कर में ।
इतना ज़्यादा सम्मोहक और मारक ना लिखा कीजिये, भई !

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