Thursday, December 1, 2011

गोआ फिल्‍म समारोह: दूसरा दिन


भारत के 42 वें अंतर्राष्‍ट्रीय फिल्‍म-समारोह में हमारा दूसरा दिन था 29 को। सिनेमा का ये अंतर्राष्‍ट्रीय मेला कई मायनों में उत्‍साहवर्धक होता है। बढिया माहौल, फिल्‍मों के कई विकल्‍प, इंटरव्‍यूज, विचार-विमर्श, प्रेस-कॉन्‍फ्रेन्‍स वगैरह सब। मुझे हर फिल्‍म समारोह में आकर यही लगता है कि एक साथ चार-चार या छह शोज़ चलते रहते हैं। और इनमें से आप एक ही देख सकते हैं। अगर फिल्‍में रिपीट ना हों तो हर पाली में तीन या चार फिल्‍मों को देखने से आप वंचित ही रह जाते हैं। ऐसे में ये तय करना सचमुच मुश्किल होता है कि किसे देखें और किसे छोड़ें। ये सचमुच एक लॉटरी है। कई बार ऐसी फिल्‍में जो अलग अलग फिल्‍म समारोहों में नाम कमा चुकी हैं, वो भी निराश करती हैं। जैसे 'हंटर' जिसकी चर्चा मैंने पिछले अंक में की थी।

मेरा दूसरा दिन मिला-जुला ही रहा। शुरूआत फिलिप नॉयस की फिल्‍म 'न्‍यूज-फ्रंट' से हुई। जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया कि यहां फिलिप नॉयस की newsfrontफिल्‍मों का पुरावलोकन चल रहा है। 'न्‍यूज-फ्रंट' असल में दो भाईयों की कहानी है, जो न्‍यूज़रील शूट करते हैं। परिदृश्‍य ऑस्‍ट्रेलिया का है। चालीस और पचास का ज़माना जबकि न्‍यूज़रील समाचारों को देखने का अकेला ज़रिया होती थी। टेलीविजन आ रहा था और वो इस उद्योग पर अपना असर डाल रहा था। दोनों भाईयों के सहारे उनकी अपनी जिंदगी और तब के ऑस्‍ट्रेलिया को, उसकी राजनीति उथल पुथल को और न्‍यूजरील उद्योग के भीतरी कामकाज को दिखाया गया है। दिलचस्‍प बात ये रही कि इस फिल्‍म में असली न्‍यूज़रील फुटेज भी शामिल थे। फिल्‍म बीच बीच में ब्लैक-एंड-व्‍हाइट है और बीच बीच में रंगीन। कुल मिलाकर इसे देखना एक दिलचस्‍प अनुभव रहा।

फिल्‍म समारोह में कुछ फिल्‍मों का इतना नाम हो गया है कि करीब आधे घंटे पहले ही बड़ी तादाद में दर्शक सीटें घेर लेते हैं। यानी देर से पहुंचने वालों को निराशा हाथ लग रही है। पर ऐसा कुछ ही फिल्‍मों के साथ हो रहा है। दूसरे दिन की सबसे बेहतरीन फिल्‍में रहीं “school cinema” खंड की दो लघु-फिल्‍में। इस बार सिने-समारोह में शॉर्ट फिल्‍मों की बाढ़ है। एक पूरा खंड है छोटा सिनेमा। जिसमें बहुत ही नायाब फिल्‍में दिखाई जा रही हैं। जिस खंड की मैं बात कर रहा हूं उसमें छोटे स्‍कूली बच्‍चों की जिंदगी पर बनी फिल्‍में दिखाई जा रही हैं। जिनमें से ज्‍यादातर को 'एडुमीडिया' नामक संस्‍था ने प्रोड्यूस किया है। आकाश रॉय की फिल्‍म the finishing line कवल छब्‍बीस मिनिट की है। बहुत कम कलाकारों, संसाधनों और तामझाम में बनी एक ईमानदार फिल्‍म। कहानी दो स्‍कूली बच्चों हरप्रीत और निखिल की है। जो हंसराज स्‍कूल में पढ़ते थे और धावक थे। जहां फिल्‍म शुरू होती है वहां निखिल कामयाब एथलीट बन चुका है और कॉमनवेल्‍थ की तैयारी कर रहा है। हरप्रीत खेल-पत्रकार बन गया है। हरप्रीत को याद आता है कि किस तरह स्‍पोर्ट्स-टीचर निखिल को सपोर्ट करते रहे क्‍योंकि उसके पापा वाइस-प्रिंसिपल थे। एक अच्‍छा धावक होते हुए भी उसे सपोर्ट नहीं किया गया, क्‍योंकि उसके भाई ने स्‍कूल छोड़ते हुए स्‍पोर्ट्स-टीचर की इंसल्‍ट की थी। वार्षिक खेल प्रतियोगिता के लिए टीम का ऐलान होना है। निखिल के जोर देने पर हरप्रीत उसके साथ टीचर के कमरे में घुसकर चुपके से लिस्‍ट देख लेता है। निखिल भाग जाता है और हरप्रीत पकड़ा जाता है। उसे स्‍कूल से निकाल दिया जाता है। पूछताछ में वो निखिल का नाम नहीं बताता। निखिल खुलकर सामने नहीं आता।

कॉमनवेल्‍थ की तैयारियों के दौरान निखिल और हरप्रीत मिलते हैं और दोनों स्‍पोर्ट्स टीचर से मिलने जाते हैं। जहां टीचर का वही पुराना बर्ताव सामने आता है। पर इस बार हरप्रीत हिम्‍मत के साथ मुंह खोल देता है। वो कहता है कि गलती मेरी थी जो मैंने आपको अपना कॉन्फिडेन्‍स तोड़ने का मौक़ा दिया। थोड़ी हिम्‍मत जुटाकर पहले ही विरोध करता तो ये नौबत नहीं आती।

उसी शाम इस खंड की एक और फिल्‍म देखने मिली, जिसका नाम red building where the sun sets. इस अंग्रेजी फिल्‍म की अवधि है केवल 17 मिनिट। इसे दक्षिण की नामी अभिनेत्री और निर्देशिका रेवती ने बनाया है। राधिका और अरविंद की मुलाकात एक ट्रैफिक सिग्‍नल पर हुई थी। प्‍यार हुआ, शादी हुई और बच्चा भी। शादी के सात साल बाद दोनों की जिंदगी बदल गई है। झगड़े होते रहते हैं। जिन्‍हें बच्चा आर्या खामोशी से देखता है। फिल्‍म फ्लैश-बैक-नैरेटिव है। बच्‍चे के नाना उसे समंदर किनारे घुमा रहे होते हैं, तो वो पूछता है नानाजी आप कहां रहते हैं। नानाजी कहते हैं वहां पश्चिम में। red building where the sn sets. मम्‍मी-डैडी के झगड़ों से तंग आकर एक दिन बच्‍चा स्‍कूल जाने के लिए निकलता है पर वहां ना जाकर उस लाल इमारत की तलाश में निकल जाता है जहां सूरज डूबता है। और जहां उसके नानाजी रहते हैं। देर रात नानाजी उसे सड़क पर भटकते देख लेते हैं और घर पहुंचाते हैं। इस एक घटना से पति-पत्‍नी की जिंदगी बदल जाती है। वो ज्‍यादा सहनशील और एडजस्टिंग हो जाते हैं। एक दूसरे से वादा करते हैं कि अब झगड़ा नहीं केवल प्‍यार होगा।

दूसरे दिन दक्षिण की दो फिल्‍में देखीं। एक वी.के.प्रकाश की मलयालम फिल्‍म 'कर्मयोगी' जो शेक्‍सपीयर के 'हेमलेट' पर बनी है। केरल की मार्शल-आर्ट कलरिपायटू के माहिर रूद्रन की कहानी। जिसके पिता को उसके भाई ने ही जहर देकर मरवा दिया। इससे उसे गहरा सदमा लगा है। वो एक गहरे भावनात्‍मक और आध्‍यात्मिक बदलाव के दौर से गुज़रता है। और अपने पिता की मौत का बदला लेता है। काफी गूढ और जटिल कथानक वाली फिल्म है ये। जिसमें पद्मिनी कोल्‍हापुरे एक छोटी-सी भूमिका में नजर आती हैं। दूसरी मलयालम फिल्‍म थी 'ट्रैफिक'। जिसमें दिखाया गया है कि किस तरह ट्रैफिक की लाल बत्‍ती पर सभी एक साथ रूकते हैं और फिर अपने अपने रास्‍तों पर चले जाते हैं। किस तरह ज़रा सी एक लापरवाही कई लोगों की जिंदगियों को बदल देती है। 'ट्रैफिक' एक कमर्शियल फिल्‍म है, जिसमें चौंकाने वाले सारे तत्‍त्‍व शामिल किये गये हैं। पर अपनी संवेदना की वजह से ये फिल्‍म कई जगह झकझोरती है। फिल्‍मों का एक नामी और व्‍यस्‍त हीरो पारिवारिक मूल्‍यों की बातें अपने इंटरव्‍यू में कर रहा है, सामने बैठी उसकी बेटी इंटरव्‍यू ले रहे टीवी पत्रकार को सवाल भेजती है। पूछिए, मेरा फेवरेट टीचर कौन है। मेरा फेवरेट सब्‍जेक्‍ट क्‍या है वगैरह। हीरो अचकचा जाता है। कैमेरा रोककर बच्‍ची से पूछता है। और फिर कैमेरा रोल करवाकर जवाब देता है।

इस हीरो की बेटी को दिल का दौरा पड़ा है। हार्ट ट्रांसप्‍लान्‍ट करके ही उसे बचाया जा सकता है। सड़क दुर्घटना में एक होनहार टी वी पत्रकार बुरी तरह घायल है। उसके बचने की कोई उम्‍मीद नहीं। उसके माता पिता पर राजनीतिक दबाव डालकर इस बात के लिए मनवाया जाता है कि वो अपने बेटे का हार्ट दान कर दें ताकि उस बच्‍ची को बचाया जा सके। आखिरकार माता-पिता इस बात के राजी हो जाते हैं। हार्ट एक नीयत समय में दूसरे शहर पहुंचाना है। और केवल सडक से जाने का विकल्‍प है। एक कॉन्‍स्‍टेबल जिसने अपनी बच्‍ची की पढाई के पैसे जमा करने के लिए घूस ली और सस्‍पेन्‍ड हुआ..अपनी बदनामी को धोने के लिए ये चुनौती स्‍वीकार करता है। फिल्‍म में रफ्तार है, कसावट है और साथ ही संवेदना भी है। पर अफसोस कि फिल्‍म का एक बडा हिस्‍सा सडक मार्ग से रोमांचक सफर करते हुए हार्ट को मंजिल पर पहुंचाने के स्‍टंट पर खर्च कर दिया गया है। निर्देशक राजेश पिल्‍लई अब इसे हिंदी, तमिल और तेलुगू में बना रहे हैं। 

फिल्‍म-समारोह में ओमी वैद्य मीडिया से भागते नज़र आए। थ्री ईडियटस में अपनी कॉमेडी से लोगों को हंसाने वाले ओमी के खानदान का ताल्‍लुक शायद गोवा से रहा है इसलिए यहां उनका सम्‍मान था। जहां वो कोंकणी संस्‍कृति और गोआइन जीवन शैली की तारीफ करते नज़र आए। पर ऐसे फंसे कि दौडते हुए पीछा छुडाना पडा।

मोबाइल फोन इतनी बडी परेशानी बन गया है कि फिल्‍म समारोह में लोग इससे खीझते नज़र आते हैं। जब फिल्‍म परवान पर हो तो किसी का मोबाइल बज उठता है और पूरी बेशर्मी से वो हॉल में बातें करने लगता है। जिससे बाकी सभी उसे डांटते हैं और बाहर भागते हैं।

तीसरे दिन की बातें कल। 

2 टिप्‍पणियां :

राजेश उत्‍साही said...

चलिए हम तो गोवा में नहीं हैं। पर आपके बहाने फिल्‍मों की कहानी तो पता चल ही रही है। कभी मौका होगा तो देख भी पाएंगे।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

शानदार रपट.

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