Friday, June 6, 2008

मुस्लिमों को नहीं मिलता किराए का घर ।।

इन दिनों मेरा छोटा भाई मुंबई आया हुआ है । उसे मुंबई ट्रांसफर कर दिया गया है । तमाम शहरों में भटकने के बाद आखिरकार जब मुंबई शहर मिल ही गया तो घर बसाने की तैयारियां हैं । और घर 'बसाना' है तो 'घर ढूंढना' होगा । आपने वो गाना तो सुना ही होगा जो भीमसेन की फिल्‍म ‘घरौंदा’ के लिए गुलज़ार ने लिखा था और भूपिंदर के साथ रूना लैला ने गाया था । ‘दो दीवाने शहर में रात में और दोपहर में आबो-दाना ढूंढते हैं, इक आशियाना ढूंढते हैं’ । अस्‍सी का दशक आबो-दाना ढूंढने में दिक्‍कतों का दशक रहा होगा, लेकिन इस उत्‍तर आधुनिक और एम0बी0ए0 पीढ़ी के सामने आबो-दाना ढूंढने की दिक्‍कत नहीं है । बल्कि हमसे लघुतर इस पीढ़ी के 'दो दीवाने' अपने लिये एक 'आशियाना' तलाश कर रहे हैं ताकि 'चट ब्‍याह' किया जा सके । 

 

और यहां से शुरू होती हैं दिक्‍कतें ।

 

दरअसल मुंबई में घर मिलता नहीं है । चाहे किराए का चाहिए हो या मालिकाना हक़ वाला । और अगर आप मुस्लिम हैं तो आपके पास कुछ 'खास' इलाक़ों में बस जाने के सिवाय कम ही विकल्‍प होते हैं । हमने खूब कोशिश की कि भाई को अपने आसपास ही घर दिला दिया जाये । जान-पहचान के ऐस्‍टेट-ऐजेन्‍टों से कहा, पुरानी पहचान का वास्‍ता दिया । लेकिन बेचारे वे भी क्‍या करते । घर दिखाते, पसंद आता, मकान-मालिक से 'मीटिंग' की जाती और जब उन्‍हें पता चलता कि मकान किसी यूसुफ़ ख़ान को चाहिए तो उसके पसीने निकल जाते । आशंकाओं से हड़बड़ा जाता और मना कर देता । आखिरकार हमारे ऐजेन्‍टों ने कह दिया कि खोटी मेहनत मत कीजिए । यहां मुसलमानों को घर मिलना मुश्किल ही है ।

 

आगे की दास्‍तान बताने से पहले आपको अपनी दिक्‍कतों से वाकिफ करा दिया जाये । कुछ इसी तरह के हालात से हम भी गुजर चुके हैं । वो भी तब जब इस मायानगरी में अपना एक फ्लैट खरीदने की बारी आई । हुआ ये कि हमने दफ्तर के आसपास फ्लैट की तलाश शुरू की । बिल्‍डरों से मीटिंग होने लगीं । पर हर बार मुद्दा यही आता--'मांस तो नहीं खायेंगे' । 'कुर्बानी तो नहीं की जायेगी घर में' 'काला कपड़ा तो नहीं पहनेंगे' । ऐसे ऐसे सवाल कि आपको अपने होने पर शर्म आने लगे । ऐसे बिल्‍डरों से मीटिंग के बीच में ही हम उठ आते और ये जताकर कि अपन शुद्ध-शाकाहारी हैं । और वो भी बचपन से । नाम मुस्लिम है तो क्‍या हुआ और दूसरा ये कि ऐसी मानसिकता वाली इमारत में हम खुद ही रहने से इंकार करते हैं । बहरहाल काफी भटकने के बाद एक ऐसा बिल्‍डर मिला जो संगीत प्रेमी था । जिसे लगा कि विविध-भारती के दो उदघोषक उसकी बनाई इमारत में रहेंगे तो उसके लिए अच्‍छा होगा, वग़ैरह वग़ैरह । और 'हाथ मिला' लिया गया । रकम दी गयी । एग्रीमेन्‍ट साइन हो गया और हम 'फ्लैट वाले' हो गये ।

 

इमारत में अच्‍छे लोग मिले । एक परिवार जैसा माहौल । सांस्‍कृतिक आयोजनों की जिम्‍मेदारी हम दोनों को सौंपी गयी और खुशनुमा माहौल में रहने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हो गया ।

 

लेकिन अपने छोटे भाई को उसी तरह की दिक्‍कतों का सामना करते देख मन विचलित हो गया । तरह तरह के सवाल खड़े हो गये । ये लगा कि आखिर इस इक्‍कीसवीं सदी में पहुंचने के बावजूद हम व्‍यक्ति को पहले उसके काम और उसके व्‍यक्तित्‍व से क्‍यूं नहीं पहचानते, पहले उसके धर्म से क्‍यों पहचानते हैं । क्‍यों एक मुस्लिम को किराए का घर देना लोगों को अपनी प्रॉपर्टी को जोखिम में डालने जैसा लगता है । हम क्‍या करें कि लोग इस मा‍नसिकता से बाहर आएं ।

 

आपको बता दूं‍ कि ऐसा तब हो रहा है जब कि बंदा मेरी तरह ही अंतधर्म विवाह के रास्‍ते पर है । ऐसी स्थिति में तो लोग मकान किराए से देने से और बचते हैं । जबकि दोनों लोग देश की नामी कंपनियों में शानदार पोज़ीशन पर हैं । पूरा किराया एडवान्‍स में देने की स्थिति में हैं । अपनी पहचान के सारे काग़ज़ात दे रहे हैं  । नियमानुसार पुलिस वेरीफिकेशन भी होने वाला है । पर फिर ?

 

ये गुस्‍सा मकान ना मिलने पर नहीं है । मकान तो उसे मिल ही गया । मेरे एक ऐजेन्‍ट-मित्र ने एक ईसाई परिवार से जान-पहचान की वजह से उनका फर्नीश्‍ड घर दिलवा दिया किराए पर  । बिना किसी हुज्‍जत के । पर इस बुरे अनुभव ने मन खट्टा कर दिया ।

 

सवाल ये है कि कब तक पढ़े लिखे मुस्लिमों की 'इंटिग्रिटी' पर शक किया जाता रहेगा । सवाल ये है कि खुद को कॉस्‍मोपॉलिटन कहने वाले इस मुंबई शहर के विकसित पश्चिमी उपनगरों में अगर ये स्थिति है तो छोटे शहरों में क्‍या होगा । और इसी मुंबई के परंपरावादी इलाक़ों में क्‍या होगा ।

 

मैं वि‍चलित हूं । बहुत विचलित हूं ।

22 टिप्‍पणियां :

दिनेशराय द्विवेदी said...

यूनुस भाई, हमारा सिर शर्म से झुक जाता है जब ऐसी बातें सुनते हैं। आज भी आप का आलेख पढ़ कर आँसू निकल आए हैं।
कुछ विचार हैं ऐसे ही जिन के कारण यह सब हो रहा है। भारत में वोट की घृणित राजनीति ने इस विचार को बल प्रदान किया है। मुम्बई में की राजनीति तो अब यूपी और बिहारियों के लिए भी यही समस्या उत्पन्न कर सकती है।
लेकिन ऐसा नहीं है। यह विचार मानव विरोधी है और एक दिन अवश्य ही इस का अंत होना है, यदि मानवता और मानव को लम्बे समय तक जीवित रहना है तो।
महेन्द्र "नेह" मथुरा के चौबे हैं और छीत स्वामी के वंशज। प्याज, लहसुन तक नहीं वापरते। जब वे मकान बनाने के लिए प्लॉट लेने लगे तो सब ने कहा एक और मुसलमान और दूसरी और पंजाबी का घर है। तो उन्हों ने जिद कर के वही प्लॉट खरीदा और आज उन के वे ही पड़ौसी सब से अच्छे पड़ौसी साबित हो रहे हैं।
इन्सानियत का मजहब से कोई लेना देना नहीं। बल्कि जिस में इन्सानियत नहीं वह मजहबी हो नहीं सकता।
पापी को मारने को पाप महाबली है। ये ताकतें जरूर हारेंगी, और हम होंगे कामयाब एक दिन।

Suresh Gupta said...

यह एक समस्या है. एक ग़लत बात है. पर इस समस्या का समाधान केवल एक पक्ष पर दोषारोपण करके नहीं निकाला जा सकता. हर समस्या में दो पक्ष होते हैं और दोनों ही पक्ष कहीं न कहीं दोषी होते हैं. कुछ लोग मुसलमान को मकान नहीं दे रहे. आपने इस बात पर अपना दुःख प्रकट कर दिया. पर जरा यह भी सोचिये कि यह लोग एक मुसलमान को मकान क्यों नहीं दे रहे.

मुझे दक्षिण दिल्ली का वह समय आज याद आ रहा है जब काफ़ी बड़ी संख्या में अफ़गानी मुसलमान अपना देश छोड़कर वहाँ आए थे. उस समय हर मकान मालिक इन लोगों को ही मकान देना चाहता था. हिन्दुओं को मकान मिलने में बहुत दिक्कत होती थी. जरा इस पर विचार कीजिये.

काकेश said...

क्या कहूँ.इस देश को जाति और धर्मों में बांटने का काम किसने किया.केवल किसी एक को दोष दे देने से हम अपने कर्तव्यों से इतिश्री नहीं कर सकते.इसमें आपका,हमारा,नेताओं का,मीडिया का सबका बराबर दोष है.

कुछ दिनों पहले मेरा रैगुलर ड्राइवर छुट्टी पर जा रहा था. मैं कुछ दिनों के लिये एक ड्राइवर की तलाश में था. एक ड्राइवर जिसे कहीं काम नहीं मिल रहा था वह मेरे पास आया.पास की ही झुग्गियों में रहता था. उसके बारे में पता किया. तो लोगों ने बताया कि उसे मत रखिये.पूछ्ने पर पता चला कि एक तो वह झुग्गियों में रहता है दूसरा वह मुसलमान है.मैने 24 वर्षीय उस लड़के को बुलाया उससे बात की तो पता चला कि वह पहले कॉल सैंटर में गाड़ी चलाता था.मुझे वह भला लगा और मैने उसे काम पर रख लिया.

अन्दर से मैं डर तो रहा था इसलिये नहीं कि वह मुसलमान है बल्कि इसलिये कि मैने उसका पुलिस वैरिफिकेशन नहीं करवाया. उसने मेरे साथ करीब एक महीना काम किया और मुझे वह बहुत अच्छा लगा.

आप और हम ऐसी कई मिसालें कायम कर सकें तो हम इस बुराई को जड़ से खतम कर सकते हैं.

मैथिली गुप्त said...

यूनुस भाई मैं भी विचलित हूं. एसा वाकई हो रहा है. केवल घर मिलने में ही नहीं और भी क्षेत्रों में. काकेश जी ने भी एक उदाहरण दिया है. मुम्बई में पिछले कुछ सालों में हालात और बदतर हुये हैं.

धर्म हमारा व्यक्तिगत मसला है. राज या समाज को इससे कोई सरोकार नहीं होना चाहिये.

संजय बेंगाणी said...

निसंदेह यह एक समस्या है, एक संकट भी कह सकते है. और यह एक सच्चाई भी है, जो बहुत बार समझ में नहीं आती की क्यों है? मगर है.
यह समय के साथ ही ठीक होगी.

PD said...

इसे भारत का शर्मनाक सच के अलावा क्या कहा जाये? जैसा की काकेश जी ने कहा है, लगभग वैसा ही मेरे साथ भी बचपन से होता आया है.. मेरे पिताजी कि गाड़ी के अभी तक जितने ड्राईवर रहें हैं, अधिकतर मुसलमान ही रहें हैं.. हमारे घर में तो इससे किसी को कोई प्रोबलम नहीं था कि वो घर में आयें, बैठें और खाना भी खायें.. मगर मेरे कुछ मित्र हमेशा ये प्रश्न करते थे कि ऐसा क्यों है? उन्हें अंदर क्यों आने देते हो, वगैरह वगैरह.. जबकी ये भी पाया है कि जितने मुसलमान ड्राईवर थे उनमें से कोई भी शराब नहीं पीता था और हिंदू ड्राईवर सभी पक्के शराबी थे..

क्या कहें, यहां चेन्नई में भी मेरे एक कालेज के समय के मित्र को घर मिलने में यही परेशानी उठानी परी थी.. 2-3 महीने तो हम अपने यहां उसे अपने मकान मालिक से छुपा कर रखे थे..

Arun Arora said...

यूनूस भाई बुरा मत मानना, पर अब मुझे लग रहा है कि मुंबई कोई दुसरी दुनिया है , मै तो बचपन से ही मुसलिमो मे मकान मे किरायेदार रहा हू, उन्होने भले ही कुरबानी दी हो, पर हमने हमेशा सिवईया और मिठाई खाई है.क्या हो रहा है इस पढी लिखि दुनिया को . वाकई शर्म की बात है.अगर हमारे साथ काम करने वाले को हमारे घर मे धर्म मे हिसाब से प्रवेश मिलना है तो हमे खुद हो इनसान नही समझना चाहिये.

mamta said...

इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। काफ़ी दिन पहले हमने ऐसे ही एक मुस्लिम परिवार के ऊपर पोस्ट भी लिखी थी। ऐसा लगता है कि हमारा समाज आगे बढ़ने की बजाय पीछे की ओर जा रहा है।

और हाँ एक बात और हमारे पापा और हमारे ससुर जी और हमारे पतिदेव के सबसे पुराने दोस्त मुस्लिम ही है।

Ghost Buster said...

दुखद स्थिति है. लेकिन कारण ढूँढने बैठें तो समस्या की कई परतें खुलेंगी. किसी एक पक्ष को दोष देना उचित नहीं. फ़िर से कहेंगे, पढ़कर दुःख हुआ. काश ये हालत बदलें.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

यूनुस भाई,

आपकी यह व्यथा-कथा पढते हुए मुझे तो साहिर लुधियानवी याद आते रहे ..जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं?... एक तरफ गर्व से कहो के उत्साह भरे नारे और दूसरी तरफ यह हक़ीक़त? क्या कुछ भी बदला है? हां! हम पहले से अधिक संकीर्ण और साम्प्रदायिक हुए हैं.

Abhishek Ojha said...

आपकी तरह ही हम भी विचलित हैं... अभी कुछ महीने पहले हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. हमने फ्लैट के लिए मालकिन से बात की थी दो दिन बाद जब पैसा लेकर पहुचे तो उन्होंने मना कर दिया. उनके पति को इस बात से ऐतराज था की हम सब यू पी वाले थे. समझ में नहीं आया उनसे क्या कहूं. आपकी व्यथा समझ सकता हूँ... जो मेरे एक छोटे से अनुभव से बहुत ज्यादा है.

Manish Kumar said...

दिल्ली और फरीदाबाद में मकान ढूँढते वक़्त हम लोगों पर भी बिहार यूपी का होने का ठप्पा रहने से मकान मिलनने से परेशानी हुई थी। पर आपका दुख कहीं ज्यादा विकट है। हम सभी इलाकाई , जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं।

हो ये रहा है कि कुछ लोगों के कुकृत्य को हम कभी पूरे राज्य या कभी पूरे मज़हब को बेवजह शक के दायरे में खड़ा कर देते हैं। पर शिक्षित समाज से सब धान बाइस पसेरी वाली कहावत चरितार्थ करने की उम्मीद नहीं थी।

अभय तिवारी said...

विडम्बना यह है कि अनेको लोग इस बात पर विश्वास तक करने से मुकर जाते हैं.. पिछली बार मेरे चिट्ठे पर किसी सिलसिले में ऐसी बात चली थी तो कुछ लोगों ने इस बात को पूरी तरह से झूठा साबित करने की कोशिश की.. शायद कोई बेनामी सज्जन थे..

Gyan Dutt Pandey said...

विचलित होना समझ में आता है - तब जब आपमें सहृदयता और सम भाव है। पर बाकी समाज अपने पूर्वाग्रहों से चलता है।
त्रासदी यही है कि हम उन पूर्वाग्रहोँ को दूर नहीं कर सकते। समय के साथ शायद कम हों। पर जिस तरह का प्रजातंत्र है; जो वर्गों-सम्प्रदायों को सेग्रीगेट कर वोट बैंक क्रीयेशन पर थ्राइव करता है; मुझे ज्यादा जल्दी बदलाव होता नजर नहीं आता।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

यूनुस भाई,
बंबई तो अब रहने लायक रहा नहीं ऐसा लगता है -
क्या जुल्म है मज़हब के नाम पे मनमानी है हरा तरफ़ :(

Anita kumar said...

बेहद शर्मनाक बात है, शर्म से नजरें नहीं उठा पा रहे। ऐसा हो रहा है पूर्वग्रह की वजह से और ये पूर्वग्रह तब तक नहीं टूटेगें जब तक अंतर्जातिय अंतर्धर्म विवाह अनिवार्य न कर दिए जाए। जब तक इन पूर्वग्रहों के खिलाफ़ खुल के बोला नहीं जाएगा। आप के कटु अनुभव के लिए हम सब हिन्दूओं की तरफ़ से आप से माफ़ी मांगते हैं।

Admin said...

हो सकता है. आपकी बात सही हो, लेकिन की बार मन में यह ख्याल आ जाता है कि फलां घटना के लिए मजहब/धर्म जिम्मेदार है

मिलजुल कर रहना चाहिऐ

Yusuf said...

In the movie Aamir, The Protagonist says - "Agar Mera Naam Aamir ki Jagah Amar hota kya tab bhi aap aiesa karte." Sometimes, our names have more importance than our individual identity.

What is most disturbing in this search for a house is that this whole religion based discriminatory and denial mechanism has an institutional presence and you can NEVER get away from this. A normal human being is never aware of or can never even imagine the presence of such denial mechanism on such a large scale and that too, in a city that appears cosmopolitan in its appearance. With all our secular thinking, how many people among us can even think/imagine about the presence of this difficulty in getting a house.

All this on a pretext of "muslim logo ko ghar dena Society allow nahin karti". Do these housing societies have so extreme stiff and religious identity??
This surely does not seem to be the case. People living and ruling the society seems to be decently liberal in their thinking.

Then where does this denial comes from. ..?? In the same analysis, another question is would our parents, if ever in such a question, give our houses on rent to someone who is of some other religion?? Despite all liberal and progressive thinking, I can not assume a positive answer to this question and at the same time, I do not doubt their secular approach. Then where does this problem comes from??

Does not it originate from the invisible and wild insecurity that we as a race have accumulated over last 15-20 years of political (insurgent) events of religious intolerance? Does it not seem to be creeping inside in the minds of people of liberal identities as well? Even on a very very pragmatic note, given a choice of tenant in terms of religions, this invisible insecurity would influence the landlord to decide in favor of a tenant of same religion in place of an otherwise tenant. Who want to make inconvenience choices in life...?

We have been through the grind with some bitter experiences but someone out there might be aspiring for "en bhool bhuliya sadko par apna bhi koi ek gahr hoga"
And believe me, given all these exepriences, It is really an AMBITION to search for a house in a normal society (read - Non Muslim dominated area) for a muslim guy.

Yusuf said...

In the movie Aamir, The Protagonist says - "Agar Mera Naam Aamir ki Jagah Amar hota kya tab bhi aap aiesa karte." Sometimes, our names have more importance than our individual identity.

What is most disturbing in this search for a house is that this whole religion based discriminatory and denial mechanism has an institutional presence and you can NEVER get away from this. A normal human being is never aware of or can never even imagine the presence of such denial mechanism on such a large scale and that too, in a city that appears cosmopolitan in its appearance. With all our secular thinking, how many people among us can even think/imagine about the presence of this difficulty in getting a house.

All this on a pretext of "muslim logo ko ghar dena Society allow nahin karti". Do these housing societies have so extreme stiff and religious identity??
This surely does not seem to be the case. People living and ruling the society seems to be decently liberal in their thinking.

Then where does this denial comes from. ..?? In the same analysis, another question is would our parents, if ever in such a question, give our houses on rent to someone who is of some other religion?? Despite all liberal and progressive thinking, I can not assume a positive answer to this question and at the same time, I do not doubt their secular approach. Then where does this problem comes from??

Does not it originate from the invisible and wild insecurity that we as a race have accumulated over last 15-20 years of political (insurgent) events of religious intolerance? Does it not seem to be creeping inside in the minds of people of liberal identities as well? Even on a very very pragmatic note, given a choice of tenant in terms of religions, this invisible insecurity would influence the landlord to decide in favor of a tenant of same religion in place of an otherwise tenant. Who want to make inconvenience choices in life...?

We have been through the grind with some bitter experiences but someone out there might be aspiring for "en bhool bhuliya sadko par apna bhi koi ek gahr hoga"
And believe me, given all these exepriences, It is really an AMBITION to search for a house in a normal society (read - Non Muslim dominated area) for a muslim guy.

मीनाक्षी said...

आंसुओं को थाम ले,
सब्र से जो काम ले,
आफतों से न डरे,
मुश्किलों को हल करे।
अपने मन की जिसके हाथ में लगाम है,
आदमी उसी का नाम है।
---- यूनुस जी ,, ऊपर की पंक्तियाँ आपके ब्लॉग से ही चुराई गयी हैं...
इतने सुविचार ब्लॉग पर लगा कर भी आप विचलित हैं.... नही होना चाहिए...
मानव और दानव एक ही शरीर में रहते हैं... कब कौन सामने आ जाए, कब किसका सामना करना पड़ जाए, क्या पता... .. मुस्कुराते हुए बस चलते रहिये... दुआ करते हैं कि जल्दी ही युसूफ भाई को उनकी मन पसंद का घर मिले..

सागर नाहर said...

क्या कहूं... शर्म से सिर झुका जा रहा है।
पता नहीं कब हम हिन्दु- मुसलमां से उपर उठकर इन्सान बन सकेंगे।

Unknown said...

मैं भी आपकी और युसुफ़ की मनः स्थिति और खटास में एक हूँ - ऐसा हमारे बचपन में, उन शहरों में नहीं होता था - मुम्बई में अभी ऐसा है - बहुत ही दुःख की बात है - वैसे बीस एक साल पहले जब में पहली नौकरी में मकान ढूंढ रहा था - मीट खाने के नाम पर / अविवाहित होने के कारण काफ़ी मकानों के दरवाजे बंद मिले थे [- बड़ा झंझट होता है -] बहरहाल अभी युसुफ़ को नया मकान मुबारक - मनीष

तरंग © 2008. Template by Dicas Blogger.

HOME