Sunday, April 27, 2008

बाल पत्रिका चंदामामा से जुडी हैं बचपन की यादें: साठ बरस पूरे कर चुकी है चंदामामा

कई दिनों से इस मुद्दे पर लिखना चाह रहा था । मेरी प्रिय पत्रिका 'चंदामामा' ने इस वर्ष साठ साल पूरे कर लिये । पता नहीं देश भर के अख़बारों ने इस समाचार को कितना सुर्खियों में छापा । पर मेरे लिए ये बहुत खुशी की बात है ।

इस एक ख़बर ने मुझे बचपन में बहुत दूर पहुंचा दिया । जब तेनालीराम और विक्रम वेताल की कहानियों में बड़ा रस आता था । चंदामामा ने हमें भाषाई-संस्‍कार दिये हैं । बचपन में कहानियों की भूख को शांत किया है । चंदामामा एक नई दुनिया का झरोखा बन जाती थी । इस पत्रिका का बचपन में कितना-कितना इंतज़ार रहता था । मुझे याद है कि भोपाल में अपने बहुत बचपन के दिनों में 'चंदामामा' ने बहुत साथ निभाया था । जब गर्मियों की छुट्टियां आतीं तो हम अपने मुहल्‍ले की लाइब्रेरी का सहारा लेते । ये कॉमिक्‍स लाइब्रेरी हुआ करती थी । जिसमें फैन्‍टम ( वेताल) के साथ साथ चाचा चौधरी, अमर चित्र कथा, फ्लैश गॉर्डन, राजन इकबाल वग़ैरह की कथाएं तो थीं हीं, टिन टिन, टिंकल वग़ैरह भी होती थीं । यहीं चंदामामा, चंपक और नंदन भी हुआ करती थीं । और हम सभी मित्र अलग-अलग लाईब्रेरी की सदस्‍यता लेते थे । इसका एक फ़ायदा था । सभी एक दो पत्रिकाएं किराए से लाते थे और सभी एक ही दिन में अदला-बदली कर लेते थे । आप कल्‍पना कर सकते हैं कि कितना पढ़ाकू थे, या कॉमिक्‍स और पत्रिकाओं के लती थे हम लोग । रोज़ की आधे से एक दर्जन कॉमिक्‍स और पत्रिकाएं मिलकर पढ़ी जाती थीं । पिछले गुरूवार को जब अमिताभ बच्‍चन ने 'चंदामामा' के साठ वर्ष पूरे होने पर एक विशेष अंक का विमोचन किया तो जैसे सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं । इसलिए सोचा कि आज आपको चंदामामा से जुड़े कुछ तथ्‍य बता दिए जाऐं । इस पोस्‍ट में दी गयी सारी तस्‍वीरें चंदामामा से साभार हैं । ये रही 1948 में छपे चंदामामा के अंक से ली गयी एक तस्‍वीर: 

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विकीपीडिया के मुताबिक़ चंदामामा का पहला अंक जुलाई 1947 में आया था । इस पत्रिका के संपादक हैं बी. नागीरेड्डी और चक्रपाणी । इस पत्रिका को निकालने का मकसद था स्‍वतंत्रता के बाद की पीढ़ी को भारतीय परंपरा, लोकसंस्‍कृति, पौराणिक-संपदा और इतिहास से कथाओं के माध्‍यम से परिचित कराया जा सके । इस पत्रिका के संस्‍थापक नागीरेड्डी  वही बी. नागीरेड्डी हैं जिन्‍होंने 'राम और श्‍याम' और 'जूली' जैसी फिल्‍मों का निर्माण किया । इसी पत्रिका में विक्रम-वेताल श्रृंखला छपी और आगे चलकर इसे एक टी वी धारावाहिक का रूप दिया गया ।

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आरंभ में चंदामामा छह हज़ार प्रतियों के साथ तेलुगु और तमिल में ही छपती थी । तमिल में इसका नाम था 'अंबुलीमामा' । बाद में कन्‍नड़ में भी आई और सन 1949 से इसका हिंदी संस्‍करण आरंभ हुआ । 1978 से चंदामामा चौदह भारतीय भाषाओं में छपने लगी । 1984 में इसका संस्‍कृत संस्‍करण आरंभ हुआ । चंदामामा सन 1947 से 1998 तक लगातार छपती रही । लेकिन 1998 में मज़दूरों से हुए एक विवाद की वजह से इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया । एक साल बाद चंदामामा ने वापसी की और तब से ये लगातार छप रही है । 2004 में इसका संथाली संस्‍करण भी शुरू हुआ । और ये ऐसी पहली बाल पत्रिका बन गयी जो एक जनजातीय भाषा में छापी जाती है । हिंदी अंग्रेजी और तेलुगु में इसके ब्रेल संस्‍करण भी निकलते हैं । आज सारे संस्‍करणों को मिला दिया जाये तो हर महीने चंदामामा की दो लाख्‍ा प्रतियां बिक रही हैं । सबसे बड़ी बात ये है कि ये स्‍वत: स्‍फूर्त बिक्री है । चंदामामा एक भी पैसा अपने विज्ञापन में खर्च नहीं करता । हालांकि इसके संपादक प्रकाशक मानते हैं कि जितनी प्रतियां आज इसकी बिकती हैं उससे करीब चार गुना ज्‍यादा बिकने लायक़ बाजा़र भारत में है । चंदामामा की सफलता इस बात का संकेत है कि स्‍तरीय सामग्री के पाठक हर युग में उपलब्‍ध होते हैं । आज जबकि बड़े बड़े प्रकाशक पत्रिकाओं के ना चलने की दुहाई देते हैं, चंदामामा शान से चल रही है और बिना समझौते के चल रही है ।

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बच्‍चों के लिए जिस तरह का 'कन्‍टेन्‍ट' आजकल विदेशी कार्टून नेटवर्कों या विदेशी कन्‍टेन्‍ट के सहारे चल रहे देसी नेटवर्कों के ज़रिए परोसी जा रही है उससे बच्‍चों का क्‍या हाल हो रहा है, आप अपने घर और पास पड़ोस में देख सकते हैं । चंदामामा ने पौराणिक और भारतीय कथाओं को आधार बनाया । शानदार चित्र दिये और स्‍तरीय सामग्री के सहारे अपनी सफलता को सुनिश्‍चित किया । इससे ये भी साबित होता है कि आजकल के बच्‍चे 'डिज़नी नुमा' सामग्री भले देखें लेकिन भारतीय कन्‍टेन्‍ट को नकारते नहीं हैं । जिस तरह की प्रांजल और शुद्ध हिंदी में चंदामामा अपनी कथाएं देता है उससे बच्‍चों का शब्‍द भंडार बढ़ता है । मुझे विश्‍वास है कि अन्‍य भारतीय भाषाओं में भी चंदामामा भाषाई और सामग्री की शुद्धता या स्‍तरीयता पर ज़ोर देती होगी ।

चंदामामा के साठ वर्ष पूरे होने पर अमिताभ बच्‍चन ने चंदामामा के विशेष संस्‍करण का विमोचन किया । इस दौरान उन्‍होंने क्‍या कहा, आप यहां पढ़ सकते हैं । अमिताभ का कहना था कि वे चंदामामा के बचपन से ही फैन रहे हैं । चित्र साभार जागरण याहू समाचार

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दिलचस्‍प बात ये है कि चंदामामा ने टेक्‍नॉलॉजी के हिसाब से बदलाव भी किये हैं । कुछ बड़ी कंपनियों के साथ इसका समझौता भी हुआ है । चंदामामा की वेबसाईट भी आई है और विभिन्‍न भाषाओं में इसके पुराने अंक भी डिजिटाईज़ करके उपलब्‍ध करवा दिये गये हैं । हालांकि आज जब मैंने चंदामामा पर पुराने अंक खोजने चाहे तो वो लिंक काम नहीं कर रहा था । चंदामामा की इस वेबसाईट पर मशहूर चरित्रों के आधार पर भी कहानियों को खोजा जा सकता है । जैसे अकबर बीरबल, विक्रम वेताल, गणेश, कृष्‍ण, दुष्‍टु दत्‍तु, भीम वग़ैरह ।

चंदामामा का साठ वर्ष पूरा करना हम सबके लिए प्रसन्‍नता की बात है  । हमारी प्रिय पत्रिका चंदामामा आज भी उपलब्‍ध है । मैंने इसे पढ़ने का फैसला किया है और ये भी फैसला किया है कि अब उपहार में बच्‍चों को हर कहीं यही पत्रिका भेंट की जाएगी । बल्कि कल जब अपने एक सहकर्मी से जिक्र किया तो वो बोले कि मैं आज ही जाकर चंदामामा के सारे उपलब्‍ध अंक अपने बेटे को दिलवाऊंगा । आपका क्‍या कहना है । आपकी कौन सी यादें चंदामामा से जुड़ी हैं ।

चंदामामा के संपादक बालशौरी रेड्डी से बातचीत यहां सृजनगाथा में पढि़ए ।

11 टिप्‍पणियां :

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

यूनुस, किताबें शादी तक में भेंट देने की रवायत बंगाल में रही है, कमोबेश आज भी है. महाराष्ट्र में मेरे एक दोस्त ने एक दोस्त की सुहागरात के लिए पु.ल. देशपांडे की किताबें भेंट की थीं और उस दोस्त ने बताया कि उनकी जैसी सुहागरात शायद ही किसी की रही हो. उन्होंने जिंदगी की वह साथी रात इतने खुशनुमा माहौल में बिताई कि वे आज भी एक दिल जो जान की तरह रह रहे हैं. जबकि वह सब धारावी की एक चाल का मुआमला था.
तुम अगर ये दोस्तों में ही सख्ती से लागू कर दो तो हिन्दी-उर्दू का थोड़ा भला हो जाएगा. मैंने कई बार यह किया है और मुंह बनाया जाता देखा है. लेकिन बेशर्मी की हद तक किताबों के इस मिशन में जुटना होगा.

तुमने लिखा है- 'आप कल्�पना कर सकते हैं कि कितना पढ़ाकू थे, या कॉमिक्�स और पत्रिकाओं के लती थे हम लोग'.

बहरहाल, लती शब्द तुमने बनाया है. बधाई!

Manish Kumar said...

बचपन में मैंने लोटपोट, चंदामामा, चंपक, पराग और नंदन पढ़ी हैं । इनमें से मुझे पहले चंपक और लोटपोट और बाद में पराग और बाद में पराग सबसे ज्यादा भाती थी। चंदामामा की कहानियाँ जादुई और तिलिस्मी कारनामों से पुर्ण रहती थीं जो मन में कौतूहल भी जगाती थीं और डर भी।

मैंने चंदामामा की विक्रम और वेताल श्रृंखला का सबसे ज्यादा आनंद लिया है। वेताल विक्रम का मुँह कितने अलग अलग तरह से खुलवा सकता है ये जानने की उत्सुकता हमेशा बनी रहती थी।

Anita kumar said...

यूनुस जी आज पता चल रहा है कि उम्र के लिहाज से एक पीढ़ी का फ़र्क होते हुए भी आप के और मेरे बचपन में कितनी समानता है। पढ़ते हुए लगा मानों आप हमारे ही बचपन के बारे में बता रहे हैं। विक्रम और बेताल की कहानियाँ तो कल्पना के घोड़ों को सांतवें आस्मान पर पहुंचाती थी ही साथ में वो राजकुमारी तिलोत्तमा की कहानी भी हमें बहुत भाती थी। फ़ेन्टम और मैंड्रक का तो बस पूछिए मत, कॉलेज पहुंचने तक वो हमारे हीरो रहे।
आप की पोस्ट पढ़ कर सोच रहे हैं एक बार फ़िर चंदामामा की तरफ़ रुख किया जाए। …:)

मुनीश ( munish ) said...

count me among those millions of children who once waited for awe inspiring stories of chandamama,my first choice however was PARAG followed by Madhumuskaan.

दिनेशराय द्विवेदी said...

चलिए पढने के मामले में हम भी यूनुस जी और अनिता जी जैसे ही रहे हैं। बाद में हमारे तहसील पुस्तकालय की तकरीबन सभी किताबें पढ़ डाली थीं। चंदामामा को इस सोपान पर बहुत बहुत बधाइयाँ।

mamta said...

युनुस जी आपने तो हमे बचपन के उन दिनों मे पहुँचा दिया जब हम सब भाई-बहन मे किताबें पढने के लिए मारा-मारी होती थी जबकि हमारे घर मे ये सभी किताबें आती थी अरे भाई हम लोग ५ भाई-बहन है ना। :)

अच्छा लगा ये जानकर की आप लोग भी इन्ही किताबों को पढ़ कर बड़े हुए है।

आभा said...

सच पोस्ट पढ कर बचपन में लौटना स्वभाविक है ,अरे आप एक बात तो भूल ही गए -दस गलतियों वाली -आप कितने बुद्धिमान है मै तो सबसे पहले उसे ही ढूढती थी और कई कई बार तो खुद को जिनियस ही पाती थी हा हाहा ...

Anonymous said...

Ye padhna achchha lag raha hai.Chandamama maine to kabhi padha hi nahi , isliye iske bare mein kuchh nahi sakti magar maine apne bachpan ke dino mein nandan bahut hi padha hai aur mera ye drid vishwas hai ki agar maine padhai mein kuchh bhi achchha kiya ya aaj bhi jo mujhe padhne ki lat hai , iska shreya apne bachpan ki in kitabon ko hi jata hai , kahani padhne ki aadat ko jata hai .Inse sahitya mila , sanskar mile aur achchhayian mili.Main hamesha sochti aur kehti hoon ki humare bachpan mein jo padhaya jata tha ki hum jo padhte hain uspar amal bhi karein , agar ye baat har koi apni ganth se bandh le to puri duniya badal jayegi .Hum achchha padhenge aur har us achchhayee ko apne jivan mein utar lenge .Mere dil ne hamesha ye kaha hai ki chahe hum jitne bhi bade ho jayen lekin sach hai ki hum jo bhi bante hain jaise bhi bante hain , unme humare bachpan ka sabse jyada yogdan hota hai , bachpan ki har mithi baat aur yaad bade hone par sabse jyada yaad aati hai aur gahe begahe hume madad bhi de jati hai .

Shukriya

Anonymous said...

mujhe chandamama mein jo chitr aate the we bade achchhe lagate the. shayad shankar aur raja naam ka signature hota tha un chitron ke niche.chandamama ki jo original version hoti thi tamil/telugu..to usike drawings shayad saari bhashaon ke liye istemaal hote the.usmein jo auratein hoti thi wo typical south indian lagti thee.do alag design ki sadee , balonmein gajra...

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

श्री युनूसजी,
शायद आजके लिये यह बात सही है, कि चंदामामा अपने लिये कोई इस्तेहार कहीं नहीं देता होगा, पर जब इसका हिन्दी संस्करण शुरू हुआ था तब मैंने विविध भारती के विग्य़ापन प्रसारण सेवा के मुम्बई केन्द्रसे श्री अमीन सायानी साहब की आवाझमें चंदामामा का विग्य़ापन सुना था, जो उस समय की बूकिंग पोलिसी के मुताबीक़ पूना और नागपूर के विविध भारती केन्द्र से भी करीब़ उसी समय बजते थे ।
पियुष महेता ।
सुरत ।

सागर नाहर said...

अब अपन क्या कहें .. अपन भी खतरनाक किस्म के पढ़ाकू थे/हैं। हम तो छुट्ट्यों में अपने घर में कामिक्स किताये पर भी देते थे। २५ पैसे में एक दिन, किराये क्या देते मुफ्त में अदला बदली करने और पढ़ने में ही समय बिताते थे।:)
चंदा मामा, बाल भारती, सुमन सौरभ, चंपक . नंदन, पराग... ये सब अपनी भी पसंदीदा पत्रिकायें हुआ करती थी।

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