Thursday, December 27, 2007

जोशिम की हरी मिर्च के ज़रिए आओ चलो बादलों में खो जाएं

जिंदगी में कुछ दिलचस्‍प-लोग बड़े इत्‍तेफा़क़ से मिल जाते हैं । जैसे मुझे मिल गये मनीष जोशी । मनीष जोशी यानी जोशिम

सबसे मज़ेदार बात ये है कि अपन मनीष जोशी को नहीं पहचानते । हां जानते ज़रूर हैं । और वो भी इत्‍तेफाक़ से । बात उन्‍नीस दिसंबर की है । मशहूर भजनगायक हरिओम शरण के देहान्‍त पर मैंने जो पोस्‍ट लिखी थी उस पर एक नाज़ुक-सी मार्मिक टिप्पणी नज़र आई--

वे ईश्वर और आस्था को बचपन से जोड़ने की एक बहुत मज़बूत कड़ी थे. लगभग छः वर्षों तक श्री हरिओम शरण हमारे दिनों का आरंभ रहे. स्कूली छात्रावास की मेस का लाउडस्पीकर उनकी गर्म गुदगुदी आवाज़ से सुबह भरता था - अभी भी "नंदलाला हरि का प्यारा नाम है ... " गूँज गया - ईश्वर उनकी संत सुजान स्मृति और भजन चिरायु रखे ।

लिखने वाले का नाम था--जोशिम । सहज जिज्ञासा हुई कि ये जनाब कौन हैं, पहले कभी नज़र नहीं आए । मेरे ब्‍लॉग पर कहां से आए, कैसे आए वग़ैरह वगै़रह । सो राईट क्लिक किया और इनके प्रोफाईल पर पहुंच गये । अपने बारे में मनीष जी ने ये लिख रखा है----

नाम मनीष जोशी; / उम्र - बयालीस ; / परिवार - एक पत्नी दो बच्चे;/ ठौर कहाँ कहाँ : रीवा, कानपुर, जयपुर, लखनऊ, दिल्ली, लंदन, गाजिआबाद, बंगलोर, रस अल खैमा ;/ हरी मिर्च क्यों : पुरानी हसरत (?);

नीचे इनके ब्‍लॉग का नाम लिखा था---हरी मिर्च

इस तरह अपन मनीष जोशी के ब्‍लॉग पर पहुंच गये । और पहुंच गये तो मुट्ठी में........ छुट्टे पैसों की तरह मौजूद ज़रा-से वक्‍त को हरी मिर्च पर  ख़र्च कर दिया । ज़रा-सा वक्‍त और हरी मिर्च । वाक़ई तीखी है हरी मिर्च । तीखी तेज़ और ग़ज़ब की । मनीष भाई ने हरी मिर्च के हैडर पर लिखा है--

"एक कबूतर चिट्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा, मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा" (श्री दुष्यंत कुमार की "साये में धूप" से )

ये चित्र भी मनीष जी के ब्‍लॉग से ही उड़ाया गया है । शीर्षक है 'गयी मिर्च पानी में'

                                             chilly_in_the_glass

सबसे दिलचस्‍प बात तो परसों और कल हुई । मेरे ब्‍लॉग रेडियोवाणी की एक नियमित पाठिका हैं, उन्‍होंने कल मुझे ई-मेल पर लिखा कि मेरे भाई का हिंदी ब्‍लॉग देखिए, बरसों बाद उन्‍होंने हिंदी में लिखना और पढ़ना शुरू किया है । हिंदी जो हमारे दिलों के बहुत क़रीब है । उन्‍होंने ये भी बताया कि तीन पीढि़यों से रीवा म.प्र. में रहने के बाद हम परदेस में चले आए हैं ।

फिर मैं 'हरी मिर्च' पर आया तो चौंक गया । क्‍योंकि इस ब्‍लॉग पर पहली नज़र तो मैं उन्‍नीस दिसंबर को ही डाल चुका था । तब और अब दोनों बार हैरत ये हो रही थी कि जनाब इसे किसी एग्रीगेटर से क्‍यों नहीं जोड़ रहे हैं । ख़ैर ।

जोशिम यानी मनीष जोशी.....और उनकी ये हरी मिर्च मुझे बहुत प्‍यारी लगी । यक़ीन मानिए पहले ही दिन इसे बुकमार्क कर लिया गया था । और लगा कि आप सब से इस प्‍यारे से ब्‍लॉग का परिचय कराना चाहिए । फिर लगा कि हो सकता है प्राईवेसी जैसा कोई मामला हो । घुसपैठ करने से अच्‍छा था कि पहले पूछ लिया जाये । सो मनीष जी को मेल किया गया और जवाब यूं आया----

अभी नौसिखिया हूँ - घूम घूम कर सीख रहा हूँ -  तकरीबन एक डेढ़ महीने पहले तो यह मालूम ही नहीं था की इतनी आसानी से देवनागरी छापी जा सकती है -  आस्तीन का अजगर - जो सैनिक स्कूल (रीवा)  में कुछ समय साथ रहे - उनके ब्लॉग पर पहले जानना  हुआ - उन्होंने कहा लिखो तो शुरू किया -  "बकौल" नाम यूं लिया कि बब्बा इस नाम से देशबंधु में लिखते थे और "हरी मिर्च"  नाम से मैंने कॉलेज के Festival  दिनों में एक RAG MAG  चलायी थी (१९८५)  - फिलहाल अभी नई नई बरसात सा आलम है और इस मेंढक को माइक पर पहुँचते जुखाम होने का काफी अंदेशा है

देखिये नेकी पर पूछ पूछ नहीं करूंगा और आपको इजाज़त लेने की आवश्यकता ही नहीं है - इधर चूंकी समय का संकोच सा रहता है -  लिखने - पढने  में हाथ पैर ज़्यादा  फ़ेंक रहा हूँ Blog roll  में उपस्थिति दर्ज कराने का काम टलता जा रहा है ।

अब आधा काम हो गया था । मनीष जी की ये अदा अच्‍छी लगी हमें । तो आईये ज़रा 'हरी मिर्च' के थोड़े चटख़ारे लिये जाएं ।

मनीष जी ने सत्रह नवंबर को 'हरी मिर्च' को चुपके चुपके शुरू किया था और इस पर अपनी पहली पोस्‍ट 'प्रथम' चढ़ाई थी । ज्ञान जी के शब्‍दों में कहें तो ये मुनिया पोस्‍ट थी.....ज़रा.....सी । लेकिन असर उफ.....

मेरे सहमे कदम, दरवाज़े तक टहलते, ठहरे
अभी भी दस्तक की दहलीज़ थमे, हिचके इकहरे
मरोड़ता रहा हथेली के मुहाने,
अभी वक्त को शुरू होना हैं
इस बार कलम को नहीं उँगलियों को सहेजना है
.....शायद

मुझे वो बंदा कमाल का लगता है जो चीज़ों और भावों को भी समझे और उनके बीच पसरी चुप्पियों को भी । जो भाषा की कलाबाज़ी ना करे, बल्कि बड़ी सहजता से उसे एक बच्‍चे के मानिंद......निक्‍कर की जेब में बहुत दिनों से संजोई रेज़गारी या चिल्‍लर की तरह बजाए । भाषा चूरन की पुडि़या नहीं है कि चटख़ारा लिया और भूल गए । भाषा मेरे लिए नानी का बनाया खस का शरबत है, जो नस-नस में तरंग पैदा करते हुए पेट में चला तो जाता है लेकिन उसकी खुश्‍बू और खुमार मन पर दिन भर तारी रहता है । मनीष यही कर रहे हैं 'हरी मिर्च'  में ।

अठारह दिसंबर को मनीष जी ने अपनी एक कविता 'चलोगे'  ब्‍लॉग पर डाली है । जिसमें एक विकलता है, सरलता है, तरलता है ।

ज़रा एक अंश पढि़ये ।

आओ चलो ...
आओ चलो बादल को खो आएं।
इमली के बीजों को,
सरौते से छांट कर,
खड़िया से पटिया में,
धाप-चींटी काट कर,
खटिया से तारों को,
रात-रात बात कर,
इकन्नी की चाकलेट,
चार खाने बाँट कर,
संतरे के छीकल से आंखो को धो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
धूल पड़े ब्लेडों से,
गिल्ली की फांक छाल,
खपरैल कूट मूट,
गिप्पी की सात ढाल ,
तेल चुपड़ चुटिया की,
झूल मूल ताल ताल,
गुलाबी फिराक लेस,
रिब्बन जोड़ लाल लाल ,
चमेली की बेलों में, अल्हड़ को बो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।

मनीष की बहन ने बताया कि वे बहुत दिनों बाद हिंदी से पुन: जुड़ रहे हैं । फिर से लिखना पढ़ना शुरू कर रहे हैं । कितनी ज्‍यादाती की है मनीष ने खुद को अपने पेशे के सांचे में कै़द करके और लिखने से दूर रहकर । इस कविता को पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक क‍ीजिएगा । आप इसे गुलज़ारिया भाषा कह लें, मैं भी गुलज़ार का प्रशंसक हूं पर मैं कहूंगा कि ये जिंदगी के सच्‍चे और खरे अनुभवों की मार्मिक भाषा है । इस भाषा और इस बंदे को मेरा सलाम पेश है ।

बीस दिसंबर को मनीष जी ने अपनी ग़ज़ल चढ़ाई जिसका शीर्षक था--ढलते हुए फिर संभलते । इसके कुछ शेर पेश हैं---

तार जुड़ते हैं तो तमाशे भी मिल पाते है।
बात जो सच लगे, वो ही जबान होती है।

भर समेट तारे हैं, यूं के नमक पारे हैं।
बूँद उठती है साथी, तो ही आसमान होती है।


कौम में, अमन-इंक़लाब में, दरारें सोहबत हैं।
फरेब अपनी किस्मत, यूं ही बयान होती है।

इस ग़ज़ल को पूरा यहां पढि़ये । मनीष जोशी यानी जोशिम के ब्‍लॉग को अभी तकरीबन एक महीना ही हुआ है और कुल जमा एक दर्जन पोस्‍टें आई हैं इस पर । भीड़ के बीच ये एक अलग से चमकता ब्‍लॉग है । सऊदी अरब के शहर रस अल ख़ैमा में फाईनेन्‍स उद्योग में माथापच्‍ची करते एक शख्‍स की अपनी जड़ों तक लौटने की बेक़रार कोशिश । हममें से कुछ लोग तो मनीष के ब्‍लॉग 'हरी मिर्च' पर टहल आए हैं । उम्‍मीद है कि बाक़ी भी 'हरी मिर्च' का स्‍वाद लेंगे । मनीष जी को हमारी तरंगित बधाई और शुभकामनाएं ।

 

6 टिप्‍पणियां :

Abhishek Ojha said...

अच्छा लगा हरी मिर्ची के बारे में पढ़कर... । अरे अनजान लोगो से मिलने की अनुभूति हो जाना, उनके बारे में जानना ये तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले तो करते ही हैं... पर इस तरह का विश्लेषण तो कम ही लोग करते हैं।

मीनाक्षी said...

युनुस जी , हरी मिर्च तो हमारे शहर का ही एक हिस्सा है... UAE में दुबई से कुछ दूर .. आपने मनीष जी का बहुत अच्छा परिचय दिया... हमने हरी मिर्च का स्वाद कई बार लिया लेकिन टिप प्णी देने में कंजूसी कर गए..

annapurna said...

ये हरी मिर्च तो वाकई मज़ेदार है
उतनी तीखी नहीं पर जायकेदार है

Anonymous said...

विस्तृत दुनियाजाल में प्रादेशिक डोर परिचय के बंधन बाँधती है,... आत्मीयता से सहजता की खु़शबू फैलाती है :यह पोस्ट.
धन्यवाद युनुस.

Anonymous said...

yah hari mirch to purane basmati ki tarah hai ,ab bahut dino bad likh rahe hai janab JOSHIM to jaykedar to hoga hi.

Abhijit Bhaduri said...

Hari mirch ka lutf
hamne bhi utthaya.
Joshim ke lekhni ko
hamne bhi sarahya

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