Sunday, August 11, 2013

' चंदन चाचा के बाड़े में' :नाग-पंचमी और बचपन की एक कविता की विकल याद।

तरंग पर इन दिनों सन्‍नाटा-सा था। आज नागपंचमी के मौक़े पर याद आयी एक पुरानी पोस्‍ट। जिसे फिर ठेला जा रहा है। 
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हम दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच जायें, उम्र के किसी भी पड़ाव पर, लेकिन बचपन की कुछ यादें कभी भी कहीं भी आपको अचानक आईना चमकाती नज़र आती हैं। तब तक कुछ स्‍मृतियां धूमिल पड़ जाती हैं। साल 2010 में यही हुआ था हमारे साथ जब अचानक बचपन की एक कविता याद आ गयी। पर पूरी नहीं आई। 'नागपंचमी' नामक इस कविता को खोजने में कई मित्रों, परिचितों और अपरिचितों ने योगदान दिया था।

और आखिरकार वो कविता पूरी हो ही गयी।
पर इसे पूरा करने में एक नहीं अनेक व्‍यक्तियों का योगदान रहा।
आपको बता दूं कि सबसे पहले तो रतलाम से मित्र विष्‍णु बैरागी जी ने बहुत ही मार्मिक पोस्‍ट लिखी थी, इस कविता को ना खोज पाने से उपजी निराशा को लेकर।
इसे तरंग की 2010 की इस पोस्‍ट पर पढ़ा जा सकता है।   

बाद में विदेश में रह रहे कमलेश ढवले ने सवाल उठाया कि क्‍या मध्‍यप्रदेश में जिन लोगों ने अपना बचपन बिताया और बाल भारती में पढ़ी कविताएं उन्‍हें बार बार याद आती हैं, तो मध्‍य प्रदेश पाठ्य पुस्‍तक निगम से कोई मदद ली जा सकती है। शायद ली भी जा सकती हो पर हमें ज्‍यादा उम्मीद नहीं। अफसोस यही रह गया है कि हम सभी ने इन किताबों को संभालकर नहीं रखा। बहरहाल....सागर से हमारे भौतिकी की अध्‍यापक श्रद्धेय टी.आर. शुक्‍ल जी, विदेश में रह रहे कमलेश जी और छत्‍तीसगढ़ से राहुल जी तीनों ने मिलकर इस कविता को काफी कुछ पूरा करवा दिया है। आज नाग-पंचमी है। इसलिए ये कविता सबेरे से ही ज़ेहन में गूंज रही थी। चलिए फिर से बचपन की उन यादों में पहुंचें इस कविता के माध्‍यम से। जिन्‍होंने इस कविता को लगभग पूरा करवाया उनका धन्‍यवाद। अगर अभी भी कोई तरमीम, सुधार, जोड़ घटाव बाक़ी हो तो कृपया मदद करें।


सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥
यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

यहां शायद कुछ भूल रहा हूं।
तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में

शुक्र है कि अभी वो लोग बाक़ी हैं जिन्‍हें बचपन की कविताओं की परवाह है। आपको अपने बचपन की कौन सी कविता याद आ रही है।

3 टिप्‍पणियां :

manojwordstiwari.blogspot.in said...

Bahut hi sateek ban padhi ye kavita....

Rahul Singh said...

आनंद आया पढ़ कर. कुछ पंक्तियां ऐसी भूली हैं कि लगा पहली बार पढ़ रहा हूं.

अभिषेक मिश्र said...

बचपन की पढ़ी कविताओं का असर कुछ और ही होता है...

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