Friday, December 31, 2010

सिलसिला गुलज़ार कैलेन्‍डर का। सातवां भाग: उदास आंखों में आंसुओं की नमी बची होगी।

ये साल कई मायनों में चीज़ों के अधूरे छूटने का साल रहा। 'गुलज़ार-कैलेन्‍डर' का सिलसिला कई हफ्तों से रूका पड़ा था। ऐसा नहीं था कि वक्त नहीं था। बस अधूरी पड़े सिलसिलों का सिरा पकड़कर उन्‍हें पूरा करने का हौसला नहीं मिल सका। सोचा....साल के आखिरी दिन इस नेक काम को अंजाम दिया जाए।

गुलज़ार कैलेन्‍डर से जुड़ी चौबीस अक्‍टूबर 2010 की अपनी आखिरी पोस्‍ट में अक्‍टूबर के सफ़े तक पहुंचे थे हम। मैंने 'गुलज़ार कैलेन्‍डर' के बारे में लिखते हुए कई बार कहा है..कि गुलज़ार अनछुए भावों तक पहुंचते हैं। वो जिंदगी के ऐसे कोनों को उजागर करते हैं जिन पर हम बदहवास लोगों की नज़र नहीं पड़ती।

मिसाल के लिए गुलज़ार की इस नज़्म को देखिए--

बर्फ़ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे
सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर
गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोंपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी।

गुज़रते हुए इस साल के इन आखिरी लम्‍हों में गुलज़ार को पढ़ते हुए वक्‍त की धार में बहते जाना कितना अजीब और सुहाना लगता है ना। अनगिनत ऐसी नज़्में हैं जो गुलज़ार ने ख़ुद पढ़ी हैं। 'यू-ट्यूब' से आपकी नज़र ये नज़्म। इसकी इबारत भी नीचे दी जा रही है।


गुलज़ार कैलेन्‍डर का नवंबर का पन्‍ना आपकी नज़र।

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने,
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने
काले घर में सूरज चलके, तुमने शायद सोचा था
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे.
मैने एक चराग जलाकर रोशनी कर ली,
अपना रस्ता खोल लिया
तुमने एक समन्दर हाथ में लेकर मुझपे ढेल दिया,
मैने नोह की कश्ति उस के ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैने काल को तोड़कर,
लम्हा लम्हा जीना सीख लिया
मेरी खुदी को मारना चाहा
तुमने चन्द चमत्कारों से
मेरी खुदी को मारना चाहा तुमने
चन्द चमत्कारों से
और मेरे एक प्यादे ने चलते चलते
तेरा चांद का मोहरा मार लिया
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब
तो मात हुई
मौत की शह देकर तुमने समझा था अब
तो मात हुई
मैने जिस्म का खोल उतारकर सौंप
दिया,
और रूह बचा ली
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब
तुम देखो बाज़ी...।

आईये अब गुलज़ार कैलेन्‍डर के नवंबर के सफ़े पर चला जाए।
11 यहां पुराने ज़माने का एक टेलीफोन है--काला वाला। जिसे डायल करो तो 'किर्र-किर्र' की आवाज़ आती थी। अभी किसी प्रोग्राम के लिए फ़ोन का ये साउंड-इफेक्‍ट ढूंढना पड़ा तो पसीने आ गए। और जानें कितनी-कितनी बातें याद आ गयीं। यहां गुलज़ार लिखते हैं--
हम को हटा के जब से
नई नसलें आई हैं
आवाज़ भी बदल गयी
चेहरे के साथ-साथ।

दिसंबर का पन्‍ना। यानी आखिरी सफ़ा। इस सफ़े पर वो चीज़ है--जो हमारे प्रोफेशन की ज़रूरत है। जिसके ज़रिए हमारी आवाज़ आप तक पहुंचती है। ये वो माइक है पुराने ज़माने का--जिस पर झिरियां-सी बनी हैं। जो चलते-चलते गर्म हो जाता था।
12
यहां गुलज़ार लिखते हैं--
मेरे मुंह ना लगना
मैं लोगों से कह दूंगा
तुम बोलोगे तो मैं
तुम से ऊंचा बोलूंगा.....

इसके बाद कुछ कहने को बाक़ी नहीं रहता। गुलज़ार ने इस कैलेन्‍डर के ज़रिए हमारे इस साल को यादगार बनाया है। फिर से शुक्रिया कह दूं जयपुर के भाई पवन झा को। जिन्‍होंने इसकी 'हार्ड-कॉपी' भेंट की। चलते-चलते आपको ये भी फिर से बता दूं कि अपने संग्रह के लिए आप इसकी 'सॉफ्ट-कॉपी' आप 'यहां' डाउनलोड कर सकते हैं। ये डिजाइनर और फोटोग्राफ़र विवेक रानाडे की वेबसाइट है। कैलीग्राफी की है अच्‍युत पालव ने। 


साल 2010 की आखिरी पोस्‍ट। ब्‍लॉगिंग के नज़रिए से साल 2010 ज्‍यादा अच्‍छा नहीं रहा। तनी हुई डोर जब ढीली छूटी तो दोबारा हम उसे तान नहीं पाए। हां ब्‍लॉगिंग की कमी 'फेसबुक' पर पूरी करते रहे। उम्‍मीद करते हैं कि आने वाला साल हमारे लिए सही मायनों में 'तरंगित' साबित होगा। आप सभी को आने वाले वर्ष की असंख्‍य शुभकामनाएं।

3 टिप्‍पणियां :

GAJANAN RATHOD said...

Samiksha sahaj nahi hoti ye sabhi jante hai. Lekin samiksha ko rochak katha bante aap ke blog par dekha ja sakta hai.

news said...

आवाज तो खूब सुनी है लो अब अचानक राना साहब को ढूंढते-ढूंढते आप मिल गए, सही कहा गया है मेहनत बेकार नहीं जाती

राजेश उत्‍साही said...

बहुत अच्‍छा लगा यह सब पढ़कर।
यूनुस भाई। बात गुलज़ार की चल रही है तो एक बात की तरफ ध्‍यान दिलाना चाहता हूं। फिल्‍म आर्शीवाद में अशोककुमार के गाए दो गाने हैं जो बच्‍चों के लिए हैं। एक है रेलगाड़ी और दूसरा नानी की नाव। दोनों ही हरेन्‍द्रनाथ चट्टोपाध्‍याय के हैं। पर विविधभारती पर दूसरे गीत के रचनाकार के तौर पर गुलज़ार जी की नाम बताया जाता है। आप खुद इससे जुड़ें हैं कृपया इस गलती को ठीक करवाएं।

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