Tuesday, October 9, 2018

यादों का बाइस्‍कोप है सिनेमा



इस बीच मैं कश्‍मीर की एक छोटी यात्रा से लौटा हूं। तमाम बातों से इतर जिस बात पर हमेशा ध्‍यान जाता है और जो बहुत हैरत में डालती है वो है यहां टॉकीज़ों का ना होना। यहां के लोगों से बात करें तो पता चलता है कि एक ज़माने में यहां जाने कितनी सारी टॉकीज़ें थीं और एक पूरी पीढ़ी थी जिसे जुनून था फिल्‍में देखने का। ऐसे भी लोग मिले जिन्‍होंने एक के बाद एक फिल्‍में देखीं। यानी दिन में लगातार तीन-तीन चार-चार शो देखकर वो घर लौटते थे। फिल्‍में देखना तब एक उत्‍सव होता था।

हम वो लोग हैं जिनके लिए फिल्‍में सुलभ हैं। हम जब चाहें
, तब सिनेमाघर का रूख़ कर सकते हैं। कल्‍पना करके देखिए कि आप चाहते हैं परिवार के साथ फिल्‍म देखें और आपके इलाक़े के सारे सिनेमाघर बंद कर दिये गये हैं। अब आप बाकी कहीं भी जा सकते हैं, नदियां, पहाड़ देख सकते हैं पर फिल्‍म तो कतई नहीं देख सकते। कितनी ख़ौफनाक है ये कल्‍पना। हालांकि डिजिटल दुनिया में इसके उपाय निकल गये हैं। कुछ हफ्तों पहले हमने बात की थी कि किस तरह अब सिनेमा देखने का तरीक़ा बदल रहा है। अब आप यूट्यूब से लेकर तमाम एप पर मनचाहा सिनेमा देख सकते हैं—तो कश्‍मीर में भी यही हो रहा है। लोग अगर चाहते हैं तो वो किसी तरह फिल्‍में देख लेते हैं। पर यहां टॉकीज़ों का ना होना मुझे दुःखी करता है।  

कितनी कितनी यादें जुड़ी होती हैं किसी फिल्‍म से। टीवी पर अचानक किसी फिल्‍म का गाना देखते ही याद आता है
, अरे ये फिल्‍म उस साल देखी थी—उस मौक़े पर देखी थी। उस टॉकीज़ में देखी थी। तब हम उस शहर में थे और हमारे साथ फलां-फलां लोग गये थे। टॉकीज़ में फिल्‍म देखने और घर पर अकेले या परिवार के साथ देखने में ख़ासा फर्क है। टॉकीज़ में एक सामूहिकता का बोध होता है। वहां आपके साथ सैकड़ों लोग हंसते-रोते हैं। टॉकीज़ में आप केवल सिनेमा देख रहे होते हैं। उस समय आप पॉज़लगाकर किचन में जाकर पानी नहीं पी सकते। या किसी से फोन पर लंबी बात नहीं कर सकते। वहां सिनेमा से आपका ताल्‍लुक गहरा हो जाता है। आप फिल्‍म को सही मायनों में जीते हैं। वहां आप सिनेमा के काबू में होते हैं। पर जब आप घर पर फिल्म देखते हैं तो सिनेमा आपके काबू में होता है।

जो चीजें हमें सहज सुलभ होती हैं—हमें उनका मोल पता नहीं होता। हम उन्‍हें बहुत हल्‍के-से लेते हैं। इस बार फिर कश्‍मीर जाकर यही अहसास हुआ कि अपने लिए सिनेमा की इतनी सहज उपलब्‍धता पर हमारा कभी ध्‍यान नहीं जाता। उसके मायने ही हम नहीं समझते। सिनेमा के ज़रिए हम एक ही जीवन में कई कई जीवन जीते हैं—हम जीवन के अपने अनुभव को समृद्ध करते हैं। कई बार हमें एक नयी सोच मिलती है। हम बदल जाते हैं। सिनेमा हमारे सुख दुःख का साथी है। फिल्‍में अच्‍छी हों
, बुरी हों पर वो बनती रहीं और कारवां चलता रहे। सिनेमा सारी दुनिया के लिए सहज उपलब्‍ध रहे। अफसोस कि जहां इतनी फिल्‍में शूट होती हैं—वहां के लोगों के पास टॉकीजें नहीं।

लोकमत समाचार के कॉलम ज़रा हट केमें सोमवार 8 अक्‍तूबर को प्रकाशित  


1 Comentário:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डाकिया डाक लाया और लाया ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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