Sunday, October 24, 2010

सिलसिला गुलज़ार कैलेन्‍डर का: छठा भाग: 'इन तालों को चाभी से तुम खोल नहीं सकते'

गुलज़ार कैलेन्‍डर का सिलसिला कुछ दिनों के लिए अटक गया था। दरअसल हमारी पतंग मसरूफियत की झाडियों में जा अटकी थी। बहरहाल आईये आगे बढ़ें।

गुलज़ार अपनी संवेदनशीलता में हम सबसे कहीं बहुत आगे खड़े नज़र आते हैं। वो वहां पहुंचते हैं जहां हमारी कल्‍पना पहुंच नहीं पाती। ज़रा इस नज़्म पर ग़ौर कीजिए। एक कटते हुए पेड़ के बारे में गुलज़ार के जज्‍बात।

मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा एक पेड़ कभी ?
मेरा वाक़िफ़ है, बहुत सालों से मैं उसे जानता हूँ...
जब में छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
पर्ली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैने खुन्नस मैं बहुत फेंके थे पत्‍थर उस पर
मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने
और जब हामला थी 'बीबा' तो दोपहर मैं हर दिन
मेरी बीवी की तरफ कैरियाँ फेंकी थी इसी ने
वक़्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ती गये
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ,उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ. जब मोड़ से गुज़रते मैं कभी
खाँसकर कहता है, 'क्यो, सर के सभी बाल  गये?'
'सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको'


नज़्म के आखिर तक पहुंचते पहुंचते आप उदास हो जाते हैं। गुलज़ार चीज़ों को मानवीय बना देते हैं। अपने कैलेन्‍डर में भी उन्‍होंने यही किया है। आईये अगले सफ़े पर चलें। ये सितंबर का पन्‍ना है।

9

यहां गुज़रे ज़माने का एक भूला-बिसरा ताला है। और गुलज़ार लिखते हैं--

सदियों से पहनी रस्‍मों को
तोड़ तो सकते हो
इन तालों को चाबी से
तुम खोल नहीं सकते।


अक्तूबर का पन्‍ना भी कमाल है। ये देखिए।
10 यहां एक ख़ानदानी पानदार नज़र आ रहा है। मुझे याद है अपने बचपन के दिनों में ऐसे नज़ाकत भरे पानदान अपने और दूसरे घरों में मैंने बहुत देखे हैं। यहां गुलज़ार की पंक्तियां जैसे जिगर को चाक कर देती हैं।

मुंह में जो बच गया था
वो सामान भी गया।
ख़ानदान की निशानी
पानदान भी गया।


गुलज़ार कैलेन्‍डर का सिलसिला अगली पोस्‍ट में अपने अंजाम पर पहुंच जायेगा।
इस दौरान गुलज़ार के कई दीवानों से यहां और मेल पर निजी तौर पर संपर्क हुआ।
गुलज़ार के हम दीवाने उनकी नामचीन और कम चर्चित रचनाओं का जिक्र यूं ही अपने अपने तईं करते रहेंगे।

फिर मिलते हैं। संभवत: कल ही।

8 टिप्‍पणियां :

Prashant .. said...

चलिए... देर आए दुरुस्त आए....

प्रवीण पाण्डेय said...

बस पढ़ते गये,
नशे में चढ़ते गये।

आभा said...

कुछ खास....बिलकुल गुलजार मार्का।

Anonymous said...

jitni baar bhi padho man nahi bharta...- NOOPUR

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

bahut sundar rachna .. kal aapki post kaa link mai charcha manch me rakhungi.. aapka abhaar

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

गुलजार साहब के फन से भला कौन नावाकिफ़ होगा| अक्सर हाशिए पर पड़ी बात को उठा कर अर्श पर तान देना कोई उन से सीखे| आपकी यह नज़्म पढ़ी तो यक-ब-यक अडोस पड़ोस में कटते पेड़, और उस पेड़ के काटने को ले कर एक दूसरे का गला काटते कमेटी मेंबर्स का चेहरा घूम गया नज़रों के सामने से|

कलाकारी के इस बेशक़ीमती कोहिनूर हीरे तक पहुँचाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया यूनुस भाई|

अनुपमा पाठक said...

bahut saarthak post!
regards,

talat's fan said...

yunus bhai aapki bahuaayami pratibha hai aap jabalpur k hain hamara bilaspur bhi pahle m.p. mein hi tha !
aapke baare mein thoda thoda janana waisa hi hai jaise patta gobhi ka parat dar parat khulna ! nice knowing u!

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